बहस ठंढ़ी हुई जरुर है पर रुकी नहीं है न्याय या अन्याय है आरक्षण-कमलेशचन्द्र त्रिपाठी
हमारे संविधन निर्माताओं ने संविधान की मूल भावना के विपरीत सामाजिक समरसता कायम करने के उद्देश्य से आजादी के पूर्व समाज में व्याप्त विकृतियों व गंभीर सामाजिक असंतुलन को दूर करने के लिए प्राविधान समाज के उनकी विशेष लोगों के लिए किया जो दासता की विषम परिस्थितियों में अपने उत्थान का समुचित अवसर न प्राप्त कर पाने के कारण देश के अन्य नागरिकों के मुकाबले देश की मुख्य धारा से कट चुके थे। परन्तु हमारे लोकतांत्रिक राजनीतिक चिन्तकों ने सारे सिध्दांतों को दरकिनार कर ‘आरक्षण‘ पर ही समाज में गोलबन्दी कायम कराकर की। विभेद को बढ़ावा देकर जातीय समीकरण के जोड़-तोड़ के माध्यम से उसका राजनीति का ब्रह्मास्त्र बना लिया गया है। राजनीतिक रूप से आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था पर देश की मौजूदा स्थिति के परिप्रेक्ष्य में भी सच बोलने की हिम्मत दिखाने का साहस किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। आज के राजनीतिज्ञ आरक्षण को अपनी राजनीतिक हत्या समझ रहे हैं। हमारी सोच व प्रवृत्ति इतनी गिर चुकी है कि हमारे मुक्तखोरी की प्रवृत्ति आरक्षण, सब्सिडी व अन्य मामलों में घातक रुप से राष्ट्रीय क्षति को नजरअंदाज कर बढ़ती चली जा रही है। देश परिवार व समाज की बड़ी इकाई है तथा देश का हर नागरिक देश का ही अंश होता है।
देश के प्रत्येक नागरिक के जीवन उत्थान से ही सशक्त राष्ट्रीय हित सुसज्जित होता है। परन्तु हम स्वार्थ में इतने अंधे है कि स्वयं के लाभ के लिए देश, समाज के अन्य नागरिकों की अवहेलना करने में रंच मात्र भी समय नहीं गंवाते हैं। समाज में आरक्षण असहाय, बेबस, निरीह व कमजोर व्यक्ति का घोतक होने के बजाय आज स्वार्थवश सामाजिक मजबूती व सम्मान का घोतक बनता चला जा रहा है। अन्य वर्गों के मुकाबले स्वयं को असहाय व निरीह दर्शित करने में हम स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे है। वर्तमान परिवेश में गलत राजनीतिक व सामाजिक व्याख्या तथा हमारी स्वार्थी सोच के कारण आरक्षण अपने मूल स्वरुप से वंचित होकर आज देश में सामाजिक समरसता कायम करने के स्थान पर सामाजिक विषमता व जातीय विभेद बढ़ाने का मूलकारण बन चुका है। वर्ग विशेष के लिए निर्धारित आरक्षण का लाभ उस वर्ग के कुछ लोगों तक कई बार पहुंच चुका है तथा उसी वर्ग के ज्यादातर लोग आज भी आरक्षण से पूर्णतया वंचित है।
जबकि संविधान की मूलभावना के अनुसारं आरक्षण के माध्यम से उस वर्ग के समस्त लोगों तक इस व्यवस्था का लाभ सामाजिक समरसतता हेतु पहुचना आवश्यक है। 65 वर्ष के अन्तराल के पश्चात देश, समाज व परिवार, संस्कृति, समाज व खान-पान पूर्णतः बदल चुका होता है। परन्तु हम अपनी व्यवस्था को बदलने में राष्ट्रीय सामाजिक हित के विपरित जातीय व राजनीतिक हित के अनुरुप परिवर्तन से परहेज करते हैं। आरक्षण का मूल उद्देश्य तभी प्रभावी रुप में समाज में परिवर्तन ला सकता है जब हम जिम्मेदार नागरिक के तौर पर समग्र राष्ट्रीय हित के अनुसार चिन्तन करें। समाज के एक वर्ग विशेष के उस व्यक्ति को तथा उसके परिवार को आरक्षण के लाभ से तब तक वंचित रखा जाना चाहिए जब तक उस वर्ग में समस्त लोगों तक संरक्षण का लाभ नहीं पहुच जाता है अन्यथा समाज में वर्ग विशेष में ही गंभीर आर्थिक व सामसजिक असंतुलन पैदा हो जाएगा। राष्ट्रीय हित के अनुसार आरक्षण में शारीरिक व शैक्षिक योग्यता में छूट के प्रावधान को पूर्णतया समाप्त किया जाना चाहिये अन्यथा कार्य विशेष के लिए निर्धारित योग्यता में कम योग्यता को धारण करने वाला जब आरक्षण के दम पर किाी पद विशेष को धारण करेगा तो कल वह सामाजिक रुप से तिरस्कृत होता जाएगा। क्योंकि ऐसे व्यक्ति की निर्धारित मानक के अनुरूप योग्यता धारण किए बगैर आरक्षण के दम पर पद धारण करने से समाज के अन्य लोग उस व्यक्ति की कार्य कुशलता पर प्रश्नचिन्ह लगााकर उसे उपेक्षित करते रहेंगे।
वर्तमान समय में देश में आरक्षण का विरोध नहीं उसे समग्र रूप से संवैधानिक व्यवस्था के? सोच के अनुरुप परिमार्जित रूप से लागू किए जाने की आवश्यकता है। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर आरक्षण का लाभ प्र्राप्त कर चुके व्यक्ति द्वारा या संसाधनों के द्वारा अपना समुचित विकास कर लेने के बाद लाभ प्राप्त को स्वेच्छा से त्याग कर देना चाहिए ताकि उस वर्ग के अन्य लोग ऐसे प्रावधान का समुचित लाभ उठाकर अपना उत्थान कर सकें। आरक्षण राजनीति का हथियार नहीं बल्कि समग्र राष्ट्रीय हित के अनुरुप सामाजिक उत्थान व समानता कायम करने का प्राविधान है। राजनीतिक दलों द्वारा इस पर वोट बैंक की राजनीति व गोलबंदी बंद कर हर कमजोर को आरक्षित किया जाना चाहिए। 10 प्रतिशत के लाॅलीपाॅप से बहस ठंडी पड़ी है, खत्म नहीं हो गई।