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कोरोना – नया रूप लेकर 102 साल पुराना दर्द

स्पेनिश फ्लू के बाद लगभग एक सदी के उपरान्त वैसी ही आपदा के रुप में सामने आए कोविड-19 के व्यापक विचार रख रहे हैं उत्तर प्रदेश गाजियाबाद के लेखक नीरज त्यागी


आज पूरी दुनिया कोरोना वायरस से लड़ रही है। ये वायरस लगभग सभी देशों में फैल चूका है। पूरे दुनिया में कोरोना से संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। वायरस कि इस महामारी ने लोगों को 1918 के स्पेनिश फ्लू की याद दिला दी है। उस दौर में जिस तेजी से संक्रमण फैला था और जितनी मौतें हुई थी उसने पूरे दुनिया को हिला दिया था। 102 साल पहले पूरी दुनिया में स्पेनिश फ्लू के कहर से एक तिहाई आबादी इसकी चपेट में आ गयी थी। उस समय कम से कम पाँच से दस करोड़ लोगों की मौत इसकी वजह से हुई थी। एक रिपोर्टस के मुताबिक इस फ्लू के कारण भारत में कम से कम 1 करोड़ 55 लाख लोगों ने जान गवाईं थी।

स्पेनिश फ्लू की वजह से करीब पौने दो करोड़ भारतीयों की मौत हुई है। जो विश्व युद्ध में मारे गए लोगों की तुलना में ज्यादा है। उस वक्त भारत ने अपनी आबादी का छह फीसदी हिस्सा इस बीमारी में खो दिया था। मरने वालों में ज्यादातर महिलाएँ थीं। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि महिलाएँ बड़े पैमाने पर कुपोषण का शिकार थी। वो अपेक्षाकृत अधिक अस्वास्थ्यकर माहौल में रहने को मजबूर थीं। इसके अलावा नर्सिंग के काम में भी वो सक्रिय थीं।

ऐसा माना जाता है कि इस महामारी से दुनिया की एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई थी और करीब पाँच से दस करोड़ लोगों की मौत हो गई थी। गांधी जी और उनके सहयोगी किस्मत के धनी थे कि वो सब बच गए। हिंदी के मशूहर लेखक और कवि सुर्यकांत त्रिपाठी निराला की बीवी और घर के कई दूसरे सदस्य इस बीमारी की भेंट चढ़ गए थे।

उन्होंने बाद में इस घटना चक्र पर लिखा भी था कि ‘मेरा परिवार पलक झपकते ही मेरी आँखों से ओझल हो गया था।’ वो उस समय के हालात के बारे में वर्णन करते हुए कहते हैं कि ’गंगा नदी शवों से पट गई थी. चारों तरफ इतने सारे शव थे कि उन्हें जलाने के लिए लकड़ी कम पड़ रही थी’. ये हालात तब और खराब हो गए थे जब खराब मानसून की वजह से सूखा पड़ गया और आकाल जैसी स्थिति बन गई। इसकी वजह से बहुत से लोगो की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई थी। शहरों में भीड़ बढ़ने लगी। इससे बीमार पड़ने वालों की संख्या और बढ़ गई।

बॉम्बे शहर इस बीमारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उस वक्त मौजूद चिकित्सकीय व्यवस्थाएं आज की तुलना में और भी कम थीं। हालांकि इलाज तो आज भी कोरोना का नहीं है लेकिन वैज्ञानिक कम से कम कोरोना वायरस की जीन मैपिंग करने में कामयाब जरूर हो पाए हैं। इस आधार पर वैज्ञानिकों ने टीका बनाने का वादा भी किया है। 1918 में जब फ्लू फैला था तब एंटीबायोटिक का चलन इतने बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ था। इतने सारे मेडिकल उपकरण भी मौजूद नहीं थे जो गंभीर रूप से बीमार लोगों का इलाज कर सकंे। पश्चिमी दवाओं का इस्तेमाल भी भारत की एक बड़ी आबादी नहीं किया करती थी और ज्यादातर लोग देशी इलाज पर ही यकीन करते थे।

इन दोनों ही महामारियों के फैलने के बीच भले ही एक सदी का फासला हो लेकिन इन दोनों के बीच कई समानताएं दिखती हैं। संभव है कि हम बहुत सारी जरूरी चीजें उस फ्लू के अनुभव से सीख सकते हैं। उस समय भी आज की तरह ही बार-बार हाथ धोने के लिए लोगों को समझाया गया था और एक दूसरे से उचित दूरी बनाकर ही रहने के लिए कहा गया था। सोशल डिस्टेंसिंग को उस समय भी बहुत अहम माना गया था और आज ही की तरह लगभग लॉक डाउन की स्थिति उस समय भी थी इतने सालों बाद भी वही स्थिति वापस हो गई है।

स्पेनिश फ्लू की चपेट में आए मरीजों को बुखार, हड्डियों में दर्द, आंखों में दर्द जैसी शिकायत थीं। इसकी वजह से महज कुछ दिन में मुंबई में कई लोगों की जान चली गई। एक अनुमान के मुताबिक जुलाई 1918 तक 1600 लोगों की मौत स्पैनिश फ्लू से हो चुकी थी। केवल मुंबई इससे प्रभावित नहीं हुआ था। रेल शुरू रहने की वजह से देश के दूसरे हिस्सों में भी ये बीमारी तेजी से फैल गई। ग्रामीण इलाकों से ज्यादा शहरों में इसका प्रभाव दिखाई दिया।

बॉम्बे में तेजी से फैलने के बाद इस वायरस ने उत्तर और पूर्व में सबसे ज्यादा तांडव मचाया। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में इस बीमारी से मरने वालों में पांचवां हिस्सा भारत का था। बाद में असम में इस गंभीर फ्लू को लेकर एक इंजेक्शन तैयार किया गया, जिससे कथित तौर पर हजारों मरीजों का टीकाकरण किया गया। जिसकी वजह से इस बीमारी को रोकने में कुछ कामयाबी मिली।

हालांकि बाद में कुछ और बाते सामने आई। सन 2012 की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के जिन हिस्सो में अंग्रेजों की ज्यादा बसाहत थी। उन हिस्सों में इस बीमारी ने ज्यादा कहर मचाया था। उन हिस्सों में भारतीय इस महामारी में सबसे अधिक मारे गए थे। अब एक बार फिर से कोरोना के बढ़ते कहर की वजह से लोग बेहद आशंकित हैं। फिलहाल सरकार और दूसरी संस्थाएं लगातार लोगों को इस गंभीर वायरस से बचाव को लेकर सभी तरह की कोशिश में जुटी हुई हैं।

सौभग्य की बात है कि गैर सरकारी संगठनों और स्वयं सेवी समूहों ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला था, उन्होंने छोटे-छोटे समूहों में कैंप बना कर लोगों की सहायता करनी शुरू की. पैसे इकट्ठा किए, कपड़े और दवाइयां बांटी है। नागरिक समूहों ने मिलकर कमिटियां बनाईं। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, ‘भारत के इतिहास में पहली बार शायद ऐसा हुआ था जब पढ़े-लिखे लोग और समृद्ध तबके के लोग गरीबों की मदद करने के लिए इतनी बड़ी संख्या में सामने आए थे।’

आज की तारीख में जब फिर एक बार ऐसी ही एक मुसीबत सामने मुंह खोले खड़ी है तब सरकार चुस्ती के साथ इसकी रोकथाम में लगी हुई है। लेकिन एक सदी पहले जब ऐसी ही मुसीबत सामने आई थी तब भी भारतीय नागरिक समाज ने बड़ी भूमिका निभाई थी। जैसे-जैसे कोरोना वायरस के मामले बढ़ते जा रहे हैं, इस पहलू को भी हमें ध्यान में रखना होगा और सभी लोगो को मिलकर इस बीमारी से लड़ाई में एकजुट होकर आगे आना होगा।