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When will Indian politics have the courage to speak the truth about Ambedkar?

अंबेडकर के बारे में सच बोलने का साहस कब करेगी भारतीय राजनीति


भारतीय राजनीति द्वारा संविधान निर्माण का सारा श्रेय डॉ० अम्बेडकर को दिए जाने को मिथ्या प्रचार और अन्य निर्माताओं का अपमान मान रहे हैं वरिष्ठ लेखक पं० छतिश द्विवेदी ‘कुण्ठित’


भारतीय संविधान एवं उसके निमार्ता को जानने के लिए सबसे पहले संविधान निमार्ण के उस काल खण्ड को जानना होगा। साथ ही यह भी जानना होगा कि वह लागू किस प्रकार हुआ और उसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ा। यह समझना भी बेहद जरुरी है कि सही क्या है और बताया क्या (गलत) जा रहा है। आपको जानना चाहिए कि भारतीय संविधान सभा का गठन स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के लिए किया गया था । इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसा संविधान तैयार करना था, जो देश की विविधता, संस्कृति और आवश्यकताओं को समाहित करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित हो। यह संविधान सभा भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला बनी और देश को एक सशक्त एवं संगठित रूप प्रदान किया। संविधान सभा का गठन 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत हुआ । इस योजना के अनुसार, कुल 389 सदस्य थे। 292 सदस्य प्रांतीय विधानसभाओं से निर्वाचित हुए। 93 सदस्य देशी रियासतों के प्रतिनिधि थे । 4 सदस्य मुख्य आयुक्त क्षेत्रों से थे। हालांकि, भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के गठन के कारण कई सदस्य सभा से अलग हो गए, जिससे भारतीय संविधान सभा के सदस्यों की संख्या घटकर 299 रह गई। संविधान सभा में विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों के प्रतिनिधि शामिल थे । कुछ प्रमुख सदस्यों में डॉ. राजेंद्र प्रसाद (अध्यक्ष), डॉ. भीमराव अंबेडकर ( मसौदा समिति के अध्यक्ष), पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सरोजिनी नायडू, दुर्गाबाई देशमुख, एच.सी. मुखर्जी व टी. टी. कृष्णमाचारी थे ।

संविधान निर्माण की प्रक्रिया को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए विभिन्न समितियाँ गठित की गईं थीं जिनमें प्रक्रिया संबंधी नियम समिति, संचालन समिति व वित्त और कर्मचारी समिति के अध्यक्ष अकेले डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे । संविधान सभा ने 9 दिसंबर 1946 को अपनी पहली बैठक आयोजित की। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा को अस्थायी अध्यक्ष चुना गया, और बाद में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया। संविधान सभा ने लगभग तीन वर्षों (2 वर्ष, 11 माह, 17 दिन ) में कुल 165 दिनों की बैठकें कीं, जिनमें से 114 दिन संविधान के मसौदे पर विचार-विमर्श में व्यतीत हुए।

सभा में संघवाद, मौलिक अधिकार, अल्पसंख्यक अधिकार, भाषा नीति, धर्मनिरपेक्षता आदि विभिन्न विषयों पर गहन चर्चा के बाद तब जाकर कोई नियम लिखित तौर पर मंजूर किया जाता था । संविधान का अनुमोदन और अंगीकरण काफी जटिलता से हो सका । संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अपनाया, और यह 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ।

तब की पूरी संविधान सभा ने एक समावेशी और लोकतांत्रिक संविधान तैयार किया, जो विभिन्न समुदायों, भाषाओं और संस्कृतियों को एक सूत्र में बांधता है । इसने भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित किया, जहां नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का अधिकार प्राप्त है।

संविधान सभा का कार्य भारतीय लोकतंत्र की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और पूरी संविधान सभा का योगदान भारतीय इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा। लेकिन आज की राजनीति ने तो पूरी संविधान सभा के संविधान निर्माण के कार्य को एक व्यक्ति के निर्माण का सामान बनाकर रख दिया है। यह गलत प्रचार दलित तुष्टिकरण के लिए दशकों से किया जा रहा है।
अम्बेडकर ने भारत में सामाजिक न्याय और समानता के लिए अच्छा काम किया, लेकिन उनके बारे में आज तक सही से बताया नहीं गया है । बहुतायत दलितों को भ्रमित किया जाता रहा है। कमोबेस सभी पार्टियों ने यही किया है सच बोलने व बताने का साहस अब तक किसी ने नहीं किया है। इसे अन्य निर्माताओं का अपमान भी कहा जा सकता है।

14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव अंबेडकर का जीवन संघर्षों की गाथा है। एक दलित परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें एक सीमा तक समाज की कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही उन्होंने जातिगत भेदभाव को भोगा और उससे उनको नफरत हो गयी। डॉ. अंबेडकर ने मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की । इसके पश्चात् वे अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और इंग्लैंड के लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स चले गए, वहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र, विधि और राजनीति में उच्च शिक्षा प्राप्त की । उनकी पढ़ाई और शोध का केंद्र समाज के वंचित वर्गों को न्याय दिलाने पर आधारित था।

आजादी के कई आन्दोलनों के बाद 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब डॉ. अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के संविधान मसौदा समिति जिसे प्रारुप समिति भी कहते हैं का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । उन्होंने अपने अध्ययन और सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर एक ऐसा संविधान तैयार करने में मदद किया, जो लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों पर आधारित है। उन्होंने संविधान में मौलिक अधिकारों, सामाजिक न्याय और आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण प्रावधानों को सुनिश्चित करने के लिए उत्तम सुझाव संविधान सभा के सामने प्रस्तुत किया । उनके प्रयासों से ही दलित, पिछड़े और वंचित वर्गों को शिक्षा और रोजगार में समान अवसर प्राप्त हो पा रहा है।

डॉ. अम्बेडकर न केवल संविधान निर्माण की महत्पूर्ण कड़ी है। उन्होंने छुआछूत और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष भी किया। उन्होंने ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’ जैसे पत्रों के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने का काम किया। उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिनमें ‘महाड़ सत्याग्रह’ और ‘नासिक का कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन’ प्रमुख हैं। |
तब बम्बई अब मुम्बई विधान परिषद ने 4 अगस्त 1923 को एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें सरकारी नियंत्रण वाले सार्वजनिक स्थलों पर सभी जातियों के लोगों को समान अधिकार देने की बात कही गई थी। हालांकि, स्थानीय सवर्ण हिंदू इस आदेश का पालन नहीं कर रहे थे। ? डॉ. अंबेडकर ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और करीब ढाई हजार अनुयायियों के साथ चावदार तालाब पहुंचे। उन्होंने स्वयं तालाब से पानी पिया और अपने अनुयायियों से भी ऐसा करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि इस तालाब का पानी पीने का हमारा उद्देश्य यह नहीं है कि इसका पानी कुछ खास है, बल्कि यह आत्मसम्मान और बराबरी का मसला है। यह घटना तब सामाजिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी, जिसने दलितों के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाई।

ठीक वैसे ही ‘कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन’ भी हुआ, जो दलितों के समानता के लिए था । इसको 2 मार्च 1930 को डॉ. अंबेडकर ने नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के अधिकार के लिए ‘कालाराम मंदिर सत्याग्रह’ के नाम से चलाया । इस आंदोलन में लगभग 15,000 दलित पुरुष और महिलाएं शामिल हुईं। मंदिर के पुजारियों और स्थानीय सवर्णों ने विरोध किया और मंदिर के द्वार बंद कर दिए। यहां तक ही नहीं सभी सत्याग्रहियों पर हमले भी हुए, लेकिन उन्होंने अहिंसा का पालन किया । यह सत्याग्रह लगभग छह वर्षों तक चला, लेकिन तत्काल सफलता नहीं मिली। बाद में, डॉ. अंबेडकर ने महसूस किया कि मंदिर प्रवेश से अधिक महत्वपूर्ण दलितों की सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण है। उन्होंने कहा था कि दलितों का अंतिम लक्ष्य सत्ता में भागीदारी है। इन दोनों आंदोलनों ने भारतीय समाज में सामाजिक न्याय और समानता की दिशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दलित समुदाय के आत्मसम्मान और अधिकारों की लड़ाई में मील के पत्थर साबित हुए। डॉ. अंबेडकर का मानना था कि समाज में समता तभी आएगी, जब शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता सभी को मिलेगी। उन्होंने नारी सशक्तिकरण की भी पुरजोर वकालत की और महिलाओं को शिक्षा व कार्यस्थल पर समान अवसर दिलाने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए।

डॉ. अंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बौद्ध धर्म को अपना लिया । अध्ययन और जीवन निर्वाह से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि जाति प्रथा और छुआछूत से मुक्ति पाने का एकमात्र मार्ग बौद्ध धर्म है। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। उनका यह कदम भारतीय समाज में परिवर्तन की एक बड़ी क्रांति माना जाता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर के संविधान निर्माण के प्रयत्न के समय की एक महत्वपूर्ण घटना और है जिसको आप सभी को अवश्य जानना चाहिए। वह है ‘हिंदू कोड बिल’ का प्रस्ताव लाना। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, डॉ. अंबेडकर को भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था। फिर 5 फरवरी 1951 को उन्होंने संसद में हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य हिंदू समाज में महिलाओं को समान अधिकार प्रदान कराना और जाति, लिंग तथा धर्म के आधार पर भेदभाव को समाप्त कराना था। साथ ही इस बिल के माध्यम से विवाह, उत्तराधिकार, गोद लेना और संपत्ति के मामलों में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने का प्रस्ताव रखा गया था।

हालांकि, इस बिल का संसद में भारी विरोध हुआ और तिव्र विरोध के कारण यह बिल उस समय पारित नहीं हो सका। जिससे निराश होकर ने 1951 में ही मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन बाद के समय 1956 में, इस ‘हिंदू कोड बिल’ के कई प्रावधानों को अलग-अलग अधिनियमों के रूप में पारित किया गया, जिससे हिंदू समाज में महिलाओं के अधिकारों की स्थिति में सुधार काफी हद तक हुआ है।

समाज और उसकी मान्यताएँ अपनी जगह है लेकिन नियति अपनी जगह । एक दिन शोक के नाम उगा, जिस दिन सूरज आकास में उगा तो जरुर लेकिन अपनी रोशनी खो दिया। वह दिन था 6 दिसंबर 1956 का । जब डॉ. भीम राव अंबेडकर का महापरिनिर्वाण हो गया।। आज भारत में लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और समानता की जो अवधारणा मजबूत हुई है, उसका श्रेय डॉ. भीम राव अंबेडकर को जरुर जाता है। वे दलितों के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं, बावजूद इसके एक बार एक पत्रकार ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर से पूछा था कि अगर आपको देश में और दलितों के कल्याण में कुछ चुनना हो तो क्या चुनेंगे? तो उन्होंने कहा था कि ‘मुझे अगर एक तरफ देश को चुनना हो और दूसरी तरफ दलितों को ! तो मैं दलितों को चुनूँगा ।’ कहा जाता है कि उन्होंने पाकिस्तान की तर्ज पर दलिस्तान की माँग भी की थी। ऐसे में उनके द्वारा दलितों के लिए किए गए कार्य तो प्रसंसनीय हैं लेकिन ‘समग्र राष्ट्रहित’ वर्गहित से व्यापक अवधारणा है। कई चिन्तकों का मानना रहा है कि डॉ भीमराव अंबेडकर समग्र राष्ट्रीय कल्याण चिंतन के पहलू पर थोड़े कमजोर भी थे। दलितों के लिए उनमें संवेदना थी, संविधान निर्माण में उनका योगदान था, लेकिन दलित हित और जन हित या सर्व हित दो बाते हैं इसे समझना होगा । साथ ही यह भी समझना होगा कि संविधान एक सामुहित रचना व संकलन है, अंबेडकर के अकेले की उपज नहीं। ऐसे में आज के राजनीतिज्ञों द्वारा उन्हें आदर्श और मसीहा बताना ठीक नहीं है। साथ ही संविधान निर्माण की संपूर्ण जिम्मेदारी देने का मिथक फैलाना कुछ लोगों को मूर्ख बनाने और बरगलाने के लिए षणयन्त्र ही है। यह उन लोगों को तो अवश्य समझना ही चाहिए जिनके लिए फैलाया जा रहा है। पार्टी चाहे जो भी हो देश के सामने सच रखने का प्रथम कर्तव्य उसी का है। कोई भी व्यक्ति या दल अपनी सत्ता की चाह में अगर इतिहास को मरोड़कर कोई गलत तथ्य प्रचारित करता है तो राष्ट्रीय अपराध करता है। राष्ट्रीय अपराध अक्षम्य श्रेणी का होता है और इसे भविष्य क्षमा नहीं करता।


लेखक ‘स्याही प्रकाशन’ ‘अनिवार्य प्रश्न’ समाचारपत्र एवं ‘उद्गार’ साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संगठन सहित कई संगठनों के संस्थापक हैं।