मदिरापान के होते हैं व्यापक दुष्परिणाम
मदिरापान के होते हैं व्यापक दुष्परिणाम
अपने वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण विवेचना से शराब सेवन करने वालों के जीवन पर पड़ने वाले भयानक नकारात्मक प्रभावों का सुन्दर शाब्दिक रेखांकन कर रहे हैं लेखक रामसेवक सिंह यादव
सभी मादक द्रव्यों में शराब का प्रयोग सारे विश्व में सबसे अधिक किया जाता है। अमीर लोग जहाॅ मंहगी शराब पीते हैं, वहीं गरीब तथा पिछड़े लोग विशेषकर भारत में घरेलू भठ्ठियों से तैयार गेहूॅ, जौ, मक्का, महुवे व गन्ने के रस आदि को सड़ाने से बनी मदिरा का प्रयोग करते हैं, परन्तु इसकी भयावह व्यापकता सभी स्तर पर तथा सभी वर्गो के लोगांे तक फैली हुई है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकार ने सन् 2018 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) नई दिल्ली के “राष्ट्रीय औषधि उपचार केन्द्र“ के माध्यम से नशीले पदार्थो के उपयोग और विस्तार के पैटर्न पर पहला राष्ट्रीय सर्वेक्षण किया। जिसके अनुसार भारत में शराब का सेवन 14.6 प्रतिशत अर्थात 16 करोड़ लोग करते हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में शराब का सेवन 23.8 प्रतिशत अर्थात 4.2 करोड़ लोग करते हैं।
शराब का सबसे अधिक दुष्प्रभाव मस्तिष्क तथा स्नायु तन्त्र पर पड़ता है। वैज्ञानिक परीक्षणों से प्राप्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो गया है कि मदिरा से मस्तिष्क की अति मासूम झिल्लियां क्षतिग्रस्त होती हैं। जिससे मस्तिष्क की कार्यक्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि शराब के नशे की स्थिति में उत्तेजित व्यक्ति नशा समाप्त होने पर अवसादग्रस्त स्थिति में पहुँच जाता है। उस समय उसे यह भी ज्ञान नहीं रह जाता कि वह किस स्थिति में कहाँ है। अधिक मात्रा में शराब के निरन्तर सेवन से यह अवसादपूर्ण स्थिति स्थाई रूप से जीवन का अंग बन जाती है।
शराब जैसे मादक द्रव्यों का प्रयोग मानव जाति के लिए हर प्रकार से समस्याएं ही उत्पन्न करने वाला है। दैनिक जीवन की कठिनाइयों तथा तनावों से मुक्ति पाने के लिए इसका प्रयोग तो मृगमरीचिका ही सिद्ध होता है। इतना जानते-समझते हुए भी नित्य अनेक लोग शराब के चंगुल में फंसते, कमाई खोते और व्याधिग्रस्त होते देखे जाते हैं। यह एक प्रकार का ऐसा मायापाश है, जो बरबस व्यक्ति को शराबखाने खींच ले आता है और उसके स्वतंत्र चिन्तन को कुण्ठित कर देता है।
वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान में पाया है कि शराबियों के मस्तिष्क की कोशिकाओं-न्यूरान का बाहरी आवरण कठोर हो जाता है। उनके मस्तिष्कीय न्यूरान केवल तभी सक्रिय होते हैं, जब वे दुबारा शराब ग्रहण करते हैं अन्यथा इससे पहले ये न्यूरान किसी प्रकार का संकेत ग्रहण करने, उनका विश्लेषण करने और पढ़ने में असफल रहते हैं। आरंभ में व्यक्ति शराब कम मात्रा में पीता है, पर जैसे-जैसे मात्रा बढ़ती जाती है, मस्तिष्कीय कोशिकाएं इस जहर से अपनी रक्षा करने के लिए एक मजबूत कवच का निर्माण कर देती है। शराब में मिली अल्कोहल न्यूरान के बाहरी खोल पर चिपककर क्रमशः उसे कठोर बना देती है। इस बाहरी कठोर आवरण को नरम बनाये बिना न्यूरान के बीच आपसी संचार संबंध कायम नहीं हो पाता। जिस कारण शराब पीना आवश्यक हो जाता है। शराबियों पर नशीली दवाओं के हल्की खुराक का भी कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि नशीली दवा के अणु रक्त संचार के माध्यम से मस्तिष्कीय न्यूरानों तक पहुॅचकर उनकी सतह पर जा चिपकते हैं और उनके आपसी संचार माध्यम को भंग कर देते हैं। ऐसी स्थिति में जब तक शराब नहीं पी जाती, मस्तिष्कीय कोशिकाएं आपस में संकेतों का आदान-प्रदान नहीं कर सकतीं।
चिकित्सा वैज्ञानिकों का कहना है कि कोई भी मादक नशीला पदार्थ मानवी काया में पहुंचकर उसके अंग अवयवों की क्रियाशीलता एवं ढांचे में परिर्वतन कर देता है। आदत बन जाने, लत पड़ जाने पर नशेड़ी की मनोदशा, चेतना, अनुभूति, शारीरिक-मानसिक क्रियाएं सभी परिवर्तित हो जाती हैं। विभिन्न सर्वेक्षणों से पता चला है कि मादक पदार्थो के निरन्तर सेवन से व्यक्ति में पलायनता एवं निष्क्रियता की वृत्ति उभरती है। उनमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव हो जाता है। व्यसनी व्यक्ति अन्ततः शारीरिक रूप से असमर्थ, मानसिक रूप से अक्षम तथा भावनात्मक रूप से असन्तुलित होकर सामाजिक एवं व्यवसायिक दृष्टि से समाज के लिए अनुपयोगी हो जाता है। निराशा व कुण्ठा उसके जीवन के अंग बन जाती हैं। उसका आचरण उग्र और अपराधयुक्त बन जाता है तथा वह समाज और राष्ट्र के लिए वह एक समस्या बन जाता है।
इस प्रकार शरीर संबंधी क्षतियों के साथ-साथ शराब व्यक्ति को मानसिक और नैतिक दृष्टि से भी खोखला बनाती है। शराब पेट में पहंुचने के बाद सर्वप्रथम मस्तिष्क को अपना शिकार बनाती है। ठीक निर्णय और ठीक समझ के लिए आवश्यक बौद्धिक चेतना शराब पीते ही छूमन्तर होने लगती है। यही कारण है कि शराब पीने वाले अपना होशो-हवाश खो देते हैं। यद्यपि पीने के तुरन्त बाद व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन अस्थाई रूप से ही अस्त-व्यस्त होता है। नशा उतरने के बाद शराबी सामान्य दिखने लगता है लेकिन उसकी मानसिक शक्ति की जडे़ तो खोखली हो ही जाती हैं। मनुष्य की मानसिक शक्ति भी जब एक बार जड़ से हिल जाती है तो दोबारा सामान्य परिस्थितियों में भी वह उसी प्रकार डगमगाने लगती है। शराबियों के साथ स्थाई पागलपन का खतरा भी इसी कारण जुड़ा रहता है।
शराब का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव स्नायुओं पर होता है, जो कोमल अनुभूतियों और संवेदनाओं के केन्द्र रहते हैं। आदतन मद्य सेवियों को इसी कारण निष्ठुर और क्रूर होते देखा जाता है, क्योंकि उनकी कोमल अनुभूतियां निर्बल स्नायु तंत्रों को छू ही नहीं पातीं। पिये हुए शराबी को शरीर पर पड़ने वाली चोट, ठोकर और लड़खड़ाने का इसी कारण ध्यान नहीं रहता है कि स्नायु उसकी सूचना मस्तिष्क तक पहुंचा ही नहीं पाते।
नैतिक दृष्टि से भी शराब ने व्यक्ति को दयनीय और पथभ्रष्ट बना देती है। देखा गया है कि अधिकांश शराबी अपराधी होते हैं। मानवीय मर्यादाओं के विरूद्ध खूंखार निर्णय लेने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति साहस कर ही नहीं पाता, क्योंकि उसकी अंतरात्मा बड़ी प्रबलता से इसका विरोध करती है और ऐसा न करने के लिए उस पर दबाव डालती है, लेकिन जब व्यक्ति अपनी आत्मा को एक बार कुचलने में सफल हो जाता है तो उसे दुबारा वैसा साहस करने में आत्मा का इतना विरोध नहीं सहना पड़ता। तब वह अपनी आत्मा की उपेक्षा करने का रास्ता पा चुका होता है और तब वह निःसंदेह मादक बेहोशी ही है। अंतरात्मा की पुकार को समाजशास्त्रीय भाषा में व्यक्ति की नैतिक चेतना भी कहा जा सकता है। जिसके अनुसार व्यक्ति समाज के अन्य सदस्यों को किसी प्रकार की हानि या क्षति पहुंचाए बिना अपना हित साधते रह सकता है। लेकिन मद्य का सेवन करते ही व्यक्ति की यह चेतना भी विलुप्त हो जाती है। इसके साथ ही व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण से बेखबर और बेहोश हो जाता है। बेहोशी में उसे किसी अन्य की उपस्थिति का आभास भी नहीं रहता और न ही आवश्यक सावधानियां तथा सतर्कताएं बरतने की कुशल चेतना। इस कारण ही शराबी ड्राईवर अक्सर दुर्घटनाएं कर बैठते हैं। वह अपना सर्वनाश करने के साथ दूसरे निर्दोष प्राणियों और जन्तुओं का भी नाश कर देते हैं। शारीरिक मानसिक और नैतिक दृष्टि से अधःपतन के बाद सबसे बड़ी हानि है व्यक्ति की आर्थिक हानि जिसे शराबी को सबसे पहले पाला पड़ता है अंततः शराब उस व्यक्ति को ही जल्दी से जल्दी पी जाती है। फिर भी कोई व्यक्ति शराब पीना आरंभ करता है और पीना उसकी आदत में शुमार हो जाता है तो शीघ्र ही आर्थिक तंगियां उसे आ घेरती हैं। इधर स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगता है-उधर पारिवारिक स्थिति डगमगाने लगती है। रोग, बीमारी, जर्जरता, दुर्बलता, गरीबी के साथ परिवार के अन्य लोगों की उपेक्षा और तिरस्कार भी उसे मिलने लगते हैं। उसका अन्त बड़ा ही दयनीय परिस्थितियों में होता है। न पत्नी का प्यार, न बच्चों का सम्मान, न स्वजनों का स्नेह, न मित्रों का प्रेम कुछ भी उसे उपलब्ध नहीं होता और न ही वह इन लोगों के संबंध में कुछ सोचने की स्थिति में रहता है। परिवार में उसके आश्रित लोग इसलिए उससे खिंचे-खिंचे रहते हैं कि वह अपने आश्रितजनों की अनिवार्य आवश्यकताओं की भी उपेक्षा कर अपने को शराब में झोंकता रहता है।
नशा कोई भी हो मनुष्य के स्वास्थ्य, शक्ति एवं चरित्र को हानि पहुंचाता है। शराबी व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन ही नहीं गड़बड़ाता वरन अपने परिवार एवं पड़ोस को भी नरकमय बना देता है। इससे जहां संपत्ति की बर्बादी होती है, वहीं व्यक्ति अपनी विश्वसनीयता खो देता है और एक दिन नकारा होकर स्वयं भी मानसिक व्यथा का शिकार बन जाता है।
शराब का घूंट हलक से उतरते ही आमाशय की श्लेष्मा-झिल्ली से छेड़छाड़ करती हुई खून से मिलकर मस्तिष्क तक पहुंच जाती है। मस्तिष्क में पहुंचने के लिए 5 मिनट से भी कम समय लगता है और वहां पहुंचते ही वह मस्तिष्क के उन भावों को निष्क्रिय कर देती है जो विचार, विश्लेषण और निर्णय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मदिरा का जो अंश मस्तिष्क को चेतना शून्य बनाता है और नशा देता है उसे इथाइल अल्कोहल कहते हैं। यह विशुद्ध रूप से बेहोश करने वाला तत्व है। शराब के माध्यम से अल्कोहल मस्तिष्क में से नियंत्रण हटाने लगता है और धीरे-धीरे नियंत्रण समाप्त हो जाता है। मानव शरीर ईश्वर की अनमोल देन है। इसे नुकसान पहुॅचाने या मिटाने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं है। अतः मानसिक सुख शान्ति, संतोष की तलाश हो तो संसार में और अध्यात्मिक केन्द्रों को खोजें लेकिन सदैव शराब से दूर ही रहें। नशा नहीं, खुशी अपनाएँ।
लेखक वाराणसी में सेवारत क्षेत्रीय मद्यनिषेध एवं समाजोत्थान अधिकारी हैं।