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क्यों भूल गया भारत भारतीय नव वर्ष

अनिवार्य प्रश्न । डेस्क

हम अपनी महानतम संस्कृति को भूल कर आज पश्चिमी संस्कृति के नव वर्ष पर हर्ष मनाते हंै, क्या अपनी महान एवं सनातन संस्कृति से जुड़े नव वर्ष की तरफ भी हमारा वही भाव वही समर्पण बन पाता है, इसका उत्तर है…नहीं, पर आखिर ऐसा क्यों है। आज हमारी नयी पीढ़ी को अपनी प्राचीन एवं अतुलनीय संस्कृति को संभालना एवं ससम्मान इसे भविष्य के हाथों में ले जाना होगा। क्योंकि हमारी संस्कृति ‘‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय‘ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘‘ की बात करती है। इससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि हमारी सनातन संस्कृति ही हमारी पहचान और अस्तित्व है।
आइये नव वर्ष की परम्परा को भी जानते हैं। एक जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं। जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जुलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया था। भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेजी शासकों ने 1752 में किया। इससे पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू हुआ करता था। किंतु 18 वीं शताब्दी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। जनवरी से जून रोमन के नामकरण रोमन जोनस, मार्स व मया इत्यादि के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उसके पौत्र आगस्टन के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के महीनों के आधार पर रखे गये हैं।


काल  गणना


काल गणना का आधार तो ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिती पर आधारित होना चाहिए। ग्रेगेरियन कैलेण्ड़र की काल गणना मात्र दो हजार वर्षो की अतिअल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 1582 वर्ष, रोम की 2757 वर्ष, यहूदी 5768, मिस्त्र की 28691, पारसी 198875 तथा चीन की 96002305 वर्ष पुरानी है । इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 110 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथो में एक एक पल की गणना की गई है ।
दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंतिका पर आक्रमण कर विजयप्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की। थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया। वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। जबकि भारतीय सरकार ने शक संवत् को अपनाया।


जिस प्रकार ईस्वी संवत् का सम्बन्ध ईसा से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मोहम्मद से है। लेकिन विक्रम संवत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न होकर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रम्हांड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रम्हांड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजूर्वेद के 27 वें व 30 वें अध्याय के मंत्र क्रमांक 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है। विश्व को सौर मण्ड़ल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिती पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित है। इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्यात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारंभ करने की बात हो हम एक कुशल पंड़ित से शुभ मुहुर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बड़े से बड़े राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुद्ध रुप से विक्रमी संवत् के पंचाग पर आधारित होता है। भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम शुभ मुहूर्त में किया जाए तो उसकी सफलता में चार चाँद लग जाते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि भारतीय नववर्ष मनाना ईसाई नववर्ष मनाने से पुर्णरूपेण श्रेष्ठ है।


भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व
प्राकृतिक और ऐतिहासक दृष्टिकोण से देखा जाए तो भारतीय नववर्ष का शुभारंभ बसंत ऋतु की प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी और चारों ओर पुष्पों की सुगंध से भरी होती है। यही वह समय होता है जब किसान की मेहनत का फल यानी फसल पकती है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है। विक्रमी संवत के प्रारंभ का पहला दिन यानी सृष्टि रचना का पहला दिन है। इस दिन से एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की। विक्रमी संवत का पहला दिन उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होता था जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो, और न ही कोई भिखारी हो। साथ ही राजा चक्रवर्ती सम्राट भी हो। सम्राट विक्रमादित्य ने 2076 वर्ष पहले इसी दिन राज्य स्थापित किया था।


प्रभु श्री राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिये चुना। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन यही होता है। सिख परंपरा के द्वितीय गुरू अंगददेव का प्रगटोत्सव इसी दिन है। समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना। सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।  विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना। युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिनः 5112 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।


भारतीय संस्कृति का विक्रमी संवत् से गहरा नाता है। भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है जिसे विक्रम संवत् का नवीन दिवस भी कहा जाता है । स्वामी विवेकानन्द ने कहा था यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकियों की दिनांकों पर आश्रित रहने वाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है। यह दिन हमारे मन में यह उद्घोष जगाता है कि हम पृथ्वी माता के पुत्र हैं, सूर्य, चन्द्र व नवग्रह हमारे आधार हैं प्राणी मात्र हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। तभी हमारी संस्कृति का बोध वाक्य ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” सार्थक सिद्ध होगा। ध्यान रहे कि सामाजिक विश्रृंखलता की विकृतियों ने भारतीय जीवन में दोष एवं रोग भर दिया, फलस्वरुप कमजोर राष्ट्र के भू-भाग पर परकियों, परधर्मियों ने आक्रमण कर हमें गुलाम बना दिया। सदियों पराधीनता की पीड़ाएं झेलनी पड़ी।


गुलामी के कारण जिस मानसिकता का विकास हुआ, इससे हमारे राष्ट्रीय भाव का क्षय हो गया और समाज में व्यक्तिवाद, भय एवं निराशा का संचार होने लगा। जिस समाज में भगवान श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक जैसे अनेकानेक ऋषि-मुनियों का आविर्भाव हुआ। जिस धराधाम पर परशुराम, विश्वामित्र, वाल्मिकी, वशिष्ठ, भीष्म एवं चाणक्य जैसे दिव्य पुरुषों का जन्म हुआ। जहां परम प्रतापी राजा-महाराजा व सम्राटों की श्रृंखला का गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ उसी समाज पर शक, हूण, डच, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी और अंग्रेज जैसे आक्रान्ताओं का आक्रमण भी हुआ। यह पुण्यभूमि इन लुटेरों की शक्ति परीक्षण का समरांगण बन गया और भारतीय समाज के पराक्रमी कहे जाने वाले शासक आपसी फूट एवं निज स्वार्थ वश पराधीन सेना के सेनापति की भांति सब कुछ सहते तथा देखते रहे। जो जीत गये उन्होंने हम पर शासन किया और अपनी संस्कृति, अपना धर्म एवं अपनी परम्परा का विष पिलाकर हमें कमजोर एवं रोगग्रस्त बना दिया। किन्तु इस राष्ट्र की जिजीविषा ने शास्त्रों में निहित अमृतरस ने इस राष्ट्र को मरने नहीं दिया।
भारतीय नवसंवत के दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग इस दिन तामसी पदार्थों से दूर रहते हैं, पर विदेशी नववर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभिमान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है, जबकि ईसवी वर्ष के साथ ही दासता एवं गुलामी की बू आने लगती है।

प्रसंगवस

पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नववर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था-
किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नववर्ष से कोई संबंध नहीं है।
यही हम लोगों को भी समझना और समझाना होगा। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके ? आइये! विदेशी को फैंक स्वदेशी अपनायें और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनायें तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें।