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बांसुरी

भारतीय संगीत में महत्व प्राप्त व कभी मोहन के मुख से गुजरती हुई मन को मोह लेने वाली बांसुरी दुनिया भर में सुनी वह बजाई जाती है। यह काष्ठ वाद्य परिवार में आती है। बांसुरी एक सुशीर वाद्य है। इस अंक में बांसुरी पर अनिवार्य प्रश्न की विशेष प्रस्तुति-

मंचदूत । डेस्क


कभी मोहन के मुख से गुजरती हुई मन को मोह लेने वाली बांसुरी दुनिया भर में सुनी व बजाई जाती है। यह काष्ठ वाद्य परिवार का एक उपकरण है। बांसुरी एक सुशीर वाद्य भी है। यह हवा एवं उससे उत्पन्न ध्वनि विज्ञान पर आधारित स्वर वाद्य है। वायु जब यंत्र के क्षेत्र के आर-पार प्रवाहित की जाती है तो उसके कारण ध्वनि उत्पन्न होती है। हमारी बांसुरी सामान्यता बेलनाकार होती है, जो वायु को उत्तेजित करती है। वादक यंत्र के छिद्रों को खोल एवं बंद कर आरोह-अवरोह में परिवर्तित करता है। इसमें स्वर की लंबाई का भी विशेष महत्व रहता है। साथ ही वायुदाब में परिवर्तन के द्वारा आधारभूत आवृत्ति से स्वर लहरियों को जोड़ा एवं बदला जाता है। इससे सुंदर, अति सुंदर, मोहक स्वर सुनाई देती है। एक अध्ययन का उल्लेख करना है जिसमें व्यावसायिक वाद को ही आंख में पट्टी बांधकर प्रयोग किया गया तो यह पाया गया कि लोग विभिन्न धातुओं से बने बांसुरी वाद्य यंत्रों में कोई अंतर नहीं खोज पाए। कोई भी वादक वाद्ययंत्र की धातु की सही पहचान नहीं कर सका। हालांकि भारत में बांस की बनी बांसुरी का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है जिसका विकास स्वतंत्र रूप से हुआ। हिंदू धर्म के भगवान कृष्ण को परंपरागत बांसुरी वादक माना गया है। पश्चिमी संस्कृति एवं संस्कारों की बांसुरी की तुलना में भारत की अपनी बांसुरी बहुत साधारण है। ऐसा भी कहा जाता है कि नागर कोई क्षेत्र में पैदा होने वाले बास से बनी बांसुरी की शान एवं उसकी स्वर प्रवाह की मधुरिमा सबसे ज्यादा होती है।

परिचय और इतिहास

खोजी गई सबसे पुरानी बांसुरी गुफा में रहने वाले एक तरुण भालू की जाँघ की हड्डी का एक टुकड़ा हो सकती है, जिसमें दो से चार छेद हो सकते हैं, यह स्लोवेनिया के डिव्जे बेब में पाई गई थी जो करीब 43,000 साल पुरानी है। हालांकि, इस तथ्य की प्रामाणिकता आज तक विवादित है। 2008 में जर्मनी के उल्म के पास होहल फेल्स गुहा में एक और कम से कम 35,000 साल पुरानी बांसुरी पाई गई। इस पाँच छेद वाली बांसुरी में एक वी-आकार का मुखपत्र है और यह एक गिद्ध के पंख की हड्डी से बनी है। खोज में शामिल शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्षों को अगस्त 2009 में ‘‘नेचर‘‘ नामक जर्नल में आधिकारिक तौर पर प्रकाशित किया था। यह खोज इतिहास में किसी भी वाद्य यंत्र की सबसे पुरानी खोज भी मानी जाती है। बांसुरी, पाए गए कई यंत्रों में से एक है, यह होहल फेल्स के शुक्र के सामने और प्राचीनतम ज्ञात मानव नक्काशी से थोड़ी सी दूरी पर होहल फेल्स की गुफा में पाई गई थी। खोज की घोषणा पर, वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि ‘‘जब आधुनिक मानव ने यूरोप को उपिनवेशित किया था, खोज उस समय की एक सुस्थापित संगीत परंपरा की उपस्थिति को प्रदर्शित करती है ‘‘.वैज्ञानिकों ने यह सुझाव भी दिया है कि बांसुरी की खोज निएंदरथेल्स और प्रारंभिक आधुनिक मानव ‘‘ के बीच संभवतः व्यवहारिक और ‘‘सृजनात्मक खाड़ी‘‘ को समझाने में सहायता भी कर सकती है।

मेमथ के दांत से निर्मित, 18.7 सेमी लम्बी, तीन छिद्रों वाली बांसुरी (दक्षिणी जर्मन स्वाबियन अल्ब में उल्म के निकट स्थित गुफा से प्राप्त हुई है और इसकी तिथि 30000 से 37,000 वर्ष पूर्व निश्चित की गयी है। यह 2004 में खोजी गयी थी और दो अन्य हंस हड्डियों से निर्मित बांसुरियां जो एक दशक पहले खुदाई में प्राप्त हुई थीं (जर्मनी की इसी गुफा से, जिनकी तिथि लगभग 36,000 साल पूर्व प्राप्त होती है) प्राचीनतम ज्ञात वाद्ययंत्रों में से हैं।
बाइबिल की जेनेसिस 4ः21 में जुबल को, ‘‘उन सभी का पिता जो उगब और किन्नौर बजाते हैं‘‘, बताया गया है। पूर्ववर्ती हिब्रू शब्द कुछ वायु वाद्य यंत्रों या सामान्यतः वायु यंत्रों को संदर्भित करता है, उत्तरवर्ती एक तारदार वाद्य यंत्र या सामान्यतः तारदार वाद्ययंत्र को संदर्भित करता है। भारतीय संस्कृति एवं पुराणों में भी बांसुरी हमेशा से आवश्यक अंग रहा है, एवं कुछ वृतातों द्वारा क्रॉस बांसुरी का उद्भव भारत में ही माना जाता है क्योंकि 1500 ई.पू. के भारतीय साहित्य में क्रॉस बांसुरी का विस्तार से विवरण है।

बांसुरी ध्वनि विज्ञान व बांसुरी की श्रेणियाँ

अपने आधारतम रूप में बांसुरी एक खुली नलिका हो सकती है जिसे बोतल की तरह बजाया जाता है। बांसुरी की कुछ विस्तृत श्रेणियां हैं। ज्यादातर बांसुरियों को संगीतकार या वादक ओठ के किनारों से बजाता है। हालांकि, कुछ बांसुरियों, जैसे विस्सल, जैमशोर्न, फ्लैजिओलैट, रिकार्डर, टिन विस्सल, टोनेट, फुजारा एवं ओकारिना में एक नली होती है जो वायु को किनारे तक भेजती है (‘‘फिपिल‘‘ नामक एक व्यवस्था) इन्हें फिपिल फ्लूट कहा जाता है।

बगल से (अथवा आड़ी) बजायी जाने वाली बांसुरियों जैसे कि पश्चिमी संगीत कवल, डान्सो, शाकुहाची, अनासाजी फ्लूट एवं क्वीना के मध्य एक और विभाजन है। बगल से बजाई जाने वाले बांसुरियों में नलिका के अंतिम सिरे से बजाये जाने की के स्थान पर ध्वनि उत्पन्न करने के लिये नलिका के बगल में छेद होता है। अंतिम सिरे से बजाये जाने वाली बांसुरियों को फिपिल बांसुरी नहीं समझना चाहिये।

बांसुरी एक या दोनों सिरों पर खुली हो सकती हैं। ओकारिना, जुन, पैन पाइप्स, पुलिस सीटी एवं बोसुन की सीटी एक सिरे पर बंद (क्लोज एंडेड) होती हंै। सिरे पर खुली बांसुरी जैसे कि कंसर्ट-बांसुरी एवं रिकॉर्डर ज्यादा सुरीले होते हैं।

बांसुरियों को कुछ विभिन्न वायु स्त्रोतों से बजाया जा सकता है। परंपरागत बांसुरी मुँह से बजायी जाती हैं, यद्यपि कुछ संस्कृतियों में तो नाक से बजायी जाने वाली बांसुरी भी प्रयोग होती है।

वैस्टर्न कंसर्ट बांसुरी

यह जर्मन बांसुरी का 19वीं सदी का वंशज है। यह एक आढ़ी या अनुप्रस्थ बांसुरी है जो कि शीर्ष पर बंद होती है। इसके शीर्ष के नजदीक एक दरारनुमा छेद होता है जिससे वादक बजाता है। बांसुरी में कई गोलाकार ध्वनि छिद्र होते हैं, जो कि इसके बारोक पूर्वजों के अंगुली छिद्र से बड़े होते हैं। वैस्टर्न कंसर्ट बांसुरी मूलतः बोहम की डिजाइन तक ही सीमित रहे एवं बोहम प्रणाली के नाम से जाने जाते है।

स्टैण्डर्ड कंसर्ट बांसुरी को सप्तक सी स्वर में स्वर बद्ध किया गया है तथा इसका विस्तार मध्य सी से प्रारंभ होकर तीसरे सप्तक तक जाता है। इसका तात्पर्य है कि कंसर्ट बांसुरी सर्वाधिक प्रचलित आर्केस्ट्रा यंत्रों में से एक है, इसका एक अपवाद पिकोलो है जो एक सप्तक ऊपर बजता है। जी आल्टो एवं सी बांस बांसुरी का प्रयोग यदा-कदा ही होता है। इन्हें क्रमशः पूर्ण चतुर्थ सप्तक एवं कंसर्ट बांसुरी से एक सप्तक नीचे स्वरबद्ध किया गया है। बांस की तुलना में आल्टो बांसुरी के अंश अधिक लिखे जाते हैं। कुछ अन्य विरले बांसुरी रूप हैं जैसे कॉन्ट्राबास, डबल कॉन्ट्राबास एवं हाइपरबास जिन्हें मध्य सप्तक से क्रमशः दो, तीन और चार सप्तक नीचे स्वरबद्ध किया गया है।

समय-समय पर
बांसुरी और पिकोलो के अन्य आकारों का प्रयोग होता है। आधुनिक स्वर बद्ध प्रणाली का एक विरला यंत्र ट्रेबल जी बांसुरी है। यंत्र पुराने स्वर मानकों के अनुसार बनाया गया है, जिसका प्रयोग सैद्धांतिक रूप से विंड-बैंड संगीत सहित डी बी पिकोलो, एब सोपरानो बांसुरी (वर्तमान कंसर्ट सी बांसुरी के समकक्ष प्राथमिक यंत्र), एफ आल्टो बांसुरी एवं बी बी बास बांसुरी में होती है।

भारतीय बांस निर्मित बांसुरी

बांस की एक कर्नाटकीय आठ-छिद्र वाली बांस की बांसुरी होती है। यह विशेष रूप से कर्नाटकीय संगीत में प्रयोग की जाती है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में बांस से निर्मित बांसुरी एक महत्वपूर्ण यंत्र है जिसका विकास पश्चिमी बांसुरी से स्वतंत्र रूप से हुआ है। पश्चिमी संस्करणों की तुलना में भारतीय बांसुरी बहुत साधारण होती है। ये बांस द्वारा निर्मित होती हैं एवं चाबी रहित होती हैं।

महान भारतीय बांसुरी वादक पन्नालाल घोष ने सर्वप्रथम छोटे से लोक वाद्ययंत्र को बांस बांसुरी (सात छिद्रों वाला 32 इंच लंबा) में परिवर्तित करके इसे परंपरागत भारतीय शास्त्रीय संगीत बजाने योग्य बनाया था तथा इसे अन्य शास्त्रीय संगीत वाद्य-यंत्रों के कद का बनाया था। अतिरिक्त छिद्र ने मध्यम बजाना संभव बनाया, जो कि कुछ परंपरागत रागों में मींदज (एम एन, पी एम एवं एम डी की तरह) को सरल बनाता है।

भारतीय बांसुरी के प्रकार

भारतीय बांसुरी के दो मुख्य प्रकारों का वर्तमान में प्रयोग हो रहा है। प्रथम वह बांसुरी है, जिसमें अंगुलियों हेतु छह छिद्र एवं एक दरारनुमा छिद्र होता है एवं जिसका प्रयोग मुख्यतः उत्तर भारत में हिंदुस्तानी संगीत में किया जाता है। दूसरी, वेणु या पुलनगुझाल है, जिसमें आठ अंगुली छिद्र होते हैं एवं जिसका प्रयोग मुख्य रूप से दक्षिण भारत में कर्नाटक संगीत में किया जाता है। इस तकनीक का प्रारंभ 20वीं शताब्दी में टी. आर. महालिंगम ने किया था। तब इसका विकास बी. एन. सुरेश एवं डॉ॰ एन. रमानी ने किया। बांसुरी के कई और प्रकार और वादन शैलियां हैं जिसमें चीनी बांसुरी व जापानी बांसुरी उल्लेखनीय हैं।