आखिर क्या है प्रेम ?
प्रस्तुत आलेख में सामान्य जन मानस के प्रेम से जुड़े अनेक साधरण व जटिल सवालों के जवाब तलाश रहे हैं वरिष्ठ लेखक सलिल सरोज
क्या प्रेम कोई आकर्षण है, दैहिक आशक्ति है, सम्भोग की इच्छा है, पल दो पल का जुड़ाव है या बिना कुछ बोले या कहे भी एक दुसरे के लिए जीने-मरने की कवायद है अथवा इन सब से इतर कुछ और ही है? प्रेम की परिभाषा गढ़ने के लिए पहले प्रेम क्या नहीं है या इसके विपरीतार्थक शब्दों की व्याख्या नितांत आवश्यक है? जिस तरह प्रश्न का अपना वजूद तब तक ही होता है जब तक कि उसका उत्तर न ढूँढ लिया जाए अर्थात निरपेक्ष या अकेले में प्रश्न की अपनी कोई हस्ती नहीं होती। तो क्या इसी तरह विसंगति, दुर्भाव, घृणा के बाद ही प्रेम के बारे में सोचा जा सकता है? क्या घृणा मात्र का न होना ही प्रेम की उपस्थिति का द्योतक हो सकता है? क्या घृणा करते हुए भी हम उसी इंसान से प्रेम कर सकते हैं? जैसे कि गाँधी जी कहते हैं घृणा पाप से करो पापी से नहीं। जबकि वह पाप भी उसी मनुष्य में निहित है जिससे प्रेम करने की वकालत की जा रही है। और भी, हम एक आदमी में किसी खास अवगुण को लेकर उससे घृणा कर सकते हैं लेकिन किसी अन्य गुण की वजह से उससे प्रेम भी करते हैं तो एक ही मनुष्य एक ही समय पर प्रेम और घृणा दोनों का पात्र नजर आ सकता है? क्या यह मान लिया जाए कि प्रेम और घृणा एक साथ ही रहते हैं, दोनों का आपस में कोई बैर नहीं। क्या हम किसी की घृणा से भी प्रेम कर सकते हैं? या जो आदमी घृणित है, उसको भी प्रेम के योग्य समझा जा सकता है? कुछ अटपटा सा महसूस जरूर हो रहा है लेकिन विचार किया जा सकता है। ईसा मसीह, साईं बाबा व मदर टेरेसा ने उन लोगों से प्रेम करना शुरू किया जो पूरे समाज में घृणित थे। कोढ़, अपंगता, बीमारी, कमजोरी, गरीबी, लाचारी ये सब कुछ एक समय में घृणा के योग्य ही समझे जाते थे लेकिन आज बिल गेट्स जैसे मानवतावादी इन्सानों की वजह से इन घृणाओं से प्रेम करके इसी दुनिया में एक नई दुनिया बसाई जा रही है। क्या प्रेम उत्तर में बिना किसी प्रेम के किया जाना संभव है? कथित तौर पर एक माँ और एक बच्चे का प्यार निश्छल होता है लेकिन माँ और बच्चे भी प्यार के बदले प्यार चाहते हैं, एक मूक पशु भी प्रेम के बदले प्रेम चाहता है। यहाँ तक देखा गया है कि भगवान् को भी अच्छे भक्तों के प्रेम की जरूरत होती है तो क्या भगवान् का प्यार एक तरफा या बिना किसी इच्छा का कहा जा सकता है? इससे आगे यह कह सकना गलत नहीं होगा कि प्रेम एक तरफा भी किया जा सकता है बिना किसी चाह के। जैसे कि मीरा बाई और सूरदास का कृष्ण के लिए प्रेम।
कुछ गूढ़ प्रश्न और भी हैं। आखिर प्रेम किस से किया जाए और क्यों किया जाए?
बौद्ध धर्म में, प्रेम सुख का महानतम स्रोत है। प्रेम यह कामना करना है कि दूसरे सुखी हों और उस सुख के कारण भी हों। यह इस बात को समझ लेने पर आधारित है कि सब समान रूप से ऐसा ही चाहते हैं, अतः यह सार्वभौमिक एवं अप्रतिबंधित है। इसमें सबके प्रति सम्वेदनशील होने और उनके सुख में अपना योगदान करने का गुण भी शामिल है। यह प्रेम सबमें बराबर बांटा जा सकता है, चाहे किसी का हमसे कोई भी संबंध हो, या उन्होंने कुछ भी किया हो। यह बदले में कोई अपेक्षा भी नहीं करता है। बौद्ध धर्म की माने तो प्रेम सुख प्राप्त करने की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है और यह प्रेम सबके लिए सामान अनुपात में दिखना चाहिए।
फ्रायड की मानें तो प्रेम भी सेक्स का ही एक रूप है। फिर सच्चे प्रेम की बात करने वाले नाराज हो जाएँगे। वे कहते हैं कि प्रेम तो दो आत्माओं का मिलन है। तब फिर ‘मिलन’ का अर्थ क्या? शरीर का शरीर से मिलन या आत्मा का आत्मा से मिलन में क्या फर्क है? कुछ दार्शनिक कहते हैं कि देह की सुंदरता के जाल में फँसने वाले कभी सच्चा प्रेम नहीं कर सकते। कामशास्त्र मानता है कि शरीर और मन दो अलग-अलग सत्ता नहीं हैं बल्कि एक ही सत्ता के दो रूप हैं। तब क्या संभोग और प्रेम भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान कहता है कि काम एक ऊर्जा है। इस ऊर्जा का प्रारंभिक रूप गहरे में कामेच्छा ही रहता है। इस ऊर्जा को आप जैसा रुख देना चाहें दे सकते हैं। यह आपके ज्ञान पर निर्भर करता है। परिपक्व लोग इस ऊर्जा को प्रेम या सृजन में बदल देते हैं। तो क्या प्रेम अपनी शारीरिक जरूरत को पूरा करने भर का एक जरिया है और क्या यह जरूरत गलत है? और इस जरूरत की पूर्ति प्रेमी स्वयं सिद्ध करेंगे या फिर समाज किसी डंडे के जोर से इसे निर्धारित करेगा?
कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं, सीस उतारे हाथ धर, सो पसरे घर माहीं… अर्थात कबीर कहते हैं – यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। यहाँ सीस का मतलब अहंकार है। कबीर का मानना है कि प्रेम करने के लिए कुछ त्याग जरूरी है। किसी के लिए अहंकार तो किसी के लिए धन तो किसी के लिए विलासिता तो किसी के लिए भौतिक सुख, मगर कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर त्याग, प्रेम की प्रथम सीढ़ी होती है। इसी अनुरूप गांधी जी भी कहते हैं-प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह तो हमेशा देता है। प्रेम हमेशा कष्ट सहता है। न कभी झुंझलाता है, न बदला लेता है। जहाँ शर्त हो, जहाँ लेने की चाह हो वहाँ प्रेम बहुत पीछे धकेल दिया जाता है और जो सामने उभर कर आता है वह है देने के बदले लेने की चाह। विवेकानंद अमरीका के शिकागो की धर्म संसद में साल 1893 में दिए गए भाषण में कहते हैं कि भारतीय संस्कृति में प्रेम सिर्फ देने की बात करता है। इस से पहले तक पाश्चात्य संस्कृति प्रेम को लेने और देने दोनों को मिलाकर समझती थी।
क्या वह मनुष्य किसी और से प्रेम कर सकता है जो स्वयं से प्रेम नहीं करता हो? जिसको अपने होने पर इंच मात्र भी खुशी नहीं हो या गर्व की कोई भावना नहीं हो। दुनिया के बड़े-बड़े तानाशाह हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन स्वयं से प्यार तो करते थे लेकिन किसी खास समुदाय के प्रति उनकी नफरत पूरे मानव जाति के लिए खतरनाक सबब बन गई। क्या उनका अपने प्रति सचमुच प्यार था या प्यार होने का दिखावा? जो इंसान दिन रात किसी भय से घिरा हो, जिसे अपने जान की फिक्र हर वक्त रहती हो, क्या हम उस व्यक्ति के लिए कह सकते हैं कि सभी भौतिक सुखों के साथ भी वह खुद से प्रेम कर पाएगा! नहीं और केवल नहीं। प्रेम में भय नहीं होता, प्रेम में आजादी होती है, प्रेम निस्संकोच होता है, प्रेम पारिस्थितिक नहीं होता बल्कि स्वतः होता है, ऐसी कुछ संभावनाएँ दर्शाई जाती हैं प्रेम को समझने के लिए। जो पारिस्थितिक होता है उसके लिए प्रेम के अन्य विकल्पों पर खरा उतरना बड़ा मुश्किल होता है। प्रेम से भरा हुआ इंसान ही किसी को प्रेम दे सकता है या जिसे प्रेम का आदर हो और जो इसके लिए कठिन संघर्ष किया हो वह जरूर प्रेम का समर्थक होगा। प्रेम का चाहे जो भी रूप हो, एक बात जरूर होनी चाहिए-त्याग और समर्पण की भावना। यदि कोई अपने व्यस्त समय में से समय बचाकर किसी के लिए समय निकालता है या बहुत कठिनाई में होते हुए भी पैसे बचाकर किसी के चेहरे पर खुशी तलाशा लेता हैं तो वह प्रेम के काफी करीब होता है। जो मनुष्य प्रेम से भरा हुआ होगा वह प्रेम छलकाता हुआ चलेगा।
अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है। जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व, अपनी पसंद-नापसंद, अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता, तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं, तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है। जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका, आपके महसूस करने का तरीका, आपकी पसंद-नापसंद, आपका दर्शन, आपकी विचारधारा सब कुछ पिघल जाता है।
प्रेम जिस से भी कीजिए-चाहे वह वस्तु हो, विचार हो, आदमी हो, जानवर हो, किताब हो या और भी कुछ, उसको समय दीजिए और उसको ठीक उसी तरह से समझने की कोशिश कीजिए वह जैसा है। अगर आप किसी को बदल कर प्यार करते हैं तो आप उस से प्यार ही नहीं कर पाएँगे जिस में आप बदलाव जाहते हैं या कर रहे हैं। बदलाव के बाद कोई भी वस्तु अपनी नैसर्गिकता खो देती है। वह, वह नहीं रह जाती जिस से कोई खिंच कर पास आ जाता है और प्यार करने लगता है। बच्चे से प्यार करते हैं तो बच्चा बनना पड़ेगा, स्त्री से प्यार करते हैं तो स्त्री की इच्छाओं की ओर भी अग्रसर होना पडेगा, यदि किसी असमर्थ से प्रेम करते हैं तो उसकी मानसिक दशा से भी गुजरना पड़ेगा। वरना आप उसे प्रेम के बदले सहानूभूति का पात्र बना देंगे। प्रेम कीजिए और जरूर कीजिए। क्योंकि प्रेम ही है जो आपको, हमको, इस पृथ्वी को बनाए रखने में समर्थ नजर आता है। जिस एक चीज की आज दुनिया को सबसे ज्यादा जरूरत नजर आती है वह है प्रेम। जो अत्याचारी है, जो आताताई है वह भी किसी न किसी से प्रेम की अपेक्षा करता है। हिटलर की भी गर्लफ्रेंड थी, मतलब दुनिया का क्रूरतम व्यक्ति भी प्रेम का प्यासा था। प्रेम एक ऐसी प्यास है जो निरंतर बढ़ती रहनी चाहिए। अगर इसकी अविरल धारा रूक जाएगी तो संसार रूक जाएगा। वेलेंटाइन डे हो या ना हो प्यार करते रहिए और समाज के अनुमति की प्रतीक्षा करते रहेंगे तो दुनिया के सबसे बड़े अहसास से वंचित रह जाएँगे।
लेखक लोक सभा सचिवालय, संसद भवन,नई दिल्ली के कार्यकारी अधिकारी हैं।