Farmers in Himachal get more income from cultivation of aromatic plants

सुगंधित पौधों की खेती से हिमाचल में किसानों को होती है अधिक आमदनी


अनिवार्य प्रश्न। संवाद


नई दिल्ली। हिमाचल प्रदेश में चंबा जिले के किसानों ने मक्का, धान और गेहूं जैसी पारंपरिक फसलों से अतिरिक्त अपनी आय को बढ़ाने के लिए नए आजीविका विकल्पों की तलाश की है। सुगंधित पौधों की खेती ने किसानों को अतिरिक्त आमदनी उपलब्ध कराई है। किसानों ने उन्नत किस्म के जंगली गेंदे (टैगेट्स मिनुटा) के पौधों से सुगन्धित तेल निकाला है और जंगली गेंदा के तेल से होने वाले लाभ ने पारंपरिक मक्का, गेहूं और धान की फसलों की तुलना में किसानों की आय को बढ़ाकर दोगुना कर दिया है।

सोसाइटी फॉर टेक्नोलॉजी एंड डेवलपमेंट (एसटीडी), मंडी कोर सपोर्ट ग्रुप, बीज विभाग और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा किए गए विभिन्न उपायों के माध्यम से किसानों के जीवन और आजीविका में सकारात्मक परिवर्तन लाया गया है। सोसाइटी फॉर टेक्नोलॉजी एंड डेवलपमेंट ने सीएसआईआर- हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के साथ मिलकर तकनीकी सहयोग से एक आकांक्षी जिले चंबा के भटियात ब्लॉक के परवई गांव में कृषक समुदाय को शामिल करते हुए सुगंधित पौधों (जंगली गेंदा, आईएचबीटी की उन्नत किस्म) की खेती और प्रसंस्करण कार्य शुरू किया है।

40 किसानों के एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) जिसे ग्रीन वैली किसान सभा परवई कहा जाता है, उसका गठन किया गया है और वित्तीय मदद के लिए इसे हिमाचल ग्रामीण बैंक परछोड़ से जोड़ा गया है। परवाई गांव में 250 किलोग्राम क्षमता की एक आसवन इकाई स्थापित की गई और किसानों को जंगली गेंदा की खेती, पौधों से तेल की निकासी, पैकिंग तथा तेल के भंडारण की कृषि-तकनीक में प्रशिक्षित किया गया और इसके बाद जंगली गेंदा की खेती एवं उससे तेल निकलने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। निकाले गए तेल को 9500 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा जा रहा है और इसका इस्तेमाल दवा उद्योगों द्वारा इत्र और अर्क तैयार करने में किया जाता है। पहले किसानों की आय जो परंपरागत फसलों से प्रति हेक्टेयर लगभग 40,000-50,000 रुपये होती थी, वहीं अब जंगली गेंदे की खेती और तेल के निष्कर्षण द्वारा प्रति हेक्टेयर लगभग 1,00,000 रुपये की वृद्धि हुई है।

एक अन्य पहल के अनुसार, किसानों ने गीली मिट्टी के छत्ते की मधुमक्खी पालन तकनीक को अपनाकर परागण में सुधार किया है जिससे सेब का उत्पादन भी बढ़ा है और सेब उत्पादकों की आय में 1.25 गुना की वृद्धि हुई है। हिमाचल प्रदेश में जिला मंडी के तलहर में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सीड डिवीजन के टाइम-लर्न कार्यक्रम के तहत सोसाइटी फॉर फार्मर्स डेवलपमेंट द्वारा क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान स्टेशन (आरएचआरएस) बाजौरा के डॉ. वाई.एस.परमार यूएचएफ के साथ तकनीकी सहयोग से हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले में बालीचौकी ब्लॉक के ज्वालापुर गांव में स्वदेशी मधुमक्खियों (एपिस सेरेना) के लिए इस तकनीक की शुरुआत की गई। जिसमें ज़िले के कुल 45 किसान शामिल हुए। प्रशिक्षित किसानों द्वारा तैयार किए गए 80 मिट्टी के छत्ते सेब के बागों में लगा दिए गए, जिसने 6 गांवों में कुल 20 हेक्टेयर भूमि को कवर किया। गीली मिट्टी छत्ता मधुमक्खी पालन प्रौद्योगिकी दीवार छत्ता और लकड़ी के छत्ते प्रौद्योगिकी का एक संयोजन है। इसमें मिट्टी के छत्ते के अंदर फ्रेम लगाने और अधिक अनुकूल परिस्थितियों के लिए आंतरिक प्रावधान है, विशेष रूप से लकड़ी के पत्तों की तुलना में पूरे वर्ष मधुमक्खियों के लिए तापमान के अनुकूलन के लिए।

इस प्रौद्योगिकी को बेहतर कॉलोनी विकास और सीमित संख्या में मधुमक्खियों के लिए लाया गया है, ये पहले से इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी के बक्से वाली तकनीकी की तुलना में ज़्यादा लाभदायक है। देशी मधुमक्खियां सेब के बाग वाले क्षेत्रों में बेहतर तरीके से जीवित रह सकती हैं, इस प्रौद्योगिकी के माध्यम से इतालवी मधुमक्खियों की तुलना में सेब के बागों की औसत उत्पादकता को लगभग 25 प्रतिशत बढ़ाने में मदद मिली है। मौजूदा मिट्टी के छत्ते में इसके आधार पर एल्यूमीनियम शीट रखकर छत्ते के अंदर आसानी से सफाई के प्रावधान उपलब्ध कराये गए हैं। इस शीट को गाय के गोबर से सील कर दिया जाता है और मिट्टी के छत्ते को खोले बिना ही सफाई के लिए इसे हटाया जा सकता है। मिट्टी के छत्ते की छत भी पत्थर की स्लेट से बनी होती है, जो बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है और छत्ते के अंदर अनुकूल तापमान बनाए रखती है। इस प्रौद्योगिकी ने लकड़ी के बक्सों की तरह शहद के अर्क का उपयोग करके हाइजीनिक तरीके से शहद के निष्कर्षण में भी मदद की है और बेहतर प्रबंधन प्रणालियों को सामने रखा है, जैसे कि पारंपरिक दीवार के छत्ते की तुलना में भोजन, निरीक्षण, समूह और कॉलोनियों का विभाजन।

गांव में एक सामान्य जन सुविधा केंद्र (सीएफसी) स्थापित किया गया है और किसानों को शहद के प्रसंस्करण तथा पैकिंग के कार्य में प्रशिक्षित किया गया है। वे स्थानीय स्तर पर 500-600 रुपये प्रति किलोग्राम शहद भी बेच रहे हैं। आवश्यकता के अनुसार विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी हस्तक्षेपों ने एक आकांक्षी जिले चंबा के किसानों और हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के कृषि उत्पादकों को बेहतर जीवन के लिए आजीविका के नये विकल्प सुलभ कराने में मदद की है।

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