कहानी- छुड़ा न सकी: कहानीकार: डॉक्टर दयाराम विश्वकर्मा
कहानी
पट्टी खुर्द प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण कमालगंज विकास खंड का एक अतीव सुंदर गांव था, जिसमें तीन में तेरह करने वाले लोग नहीं थे। यह उस गांव का सौभाग्य ही था। ज्यादातर कृषक परिवार ही निवासरत थे, जिससे उस गाँव में अमन चैन था। गाँव के लोगों का कारोबार एक तरह से खेती किसानी ही था, लोग वर्ष में तीन फसलें पैदा करते थे।
जुलाई, अगस्त, सितंबर में धान की पैदावार, अक्तूबर, नवंबर-दिसंबर में रबी की फसलें और अप्रैल, मई, जून में ज़ायद की फसल में प्रमुख तौर पर मक्का की खेती वहाँ के कृषक करते थे। वहाँ के किसान रवि में अपने घरों के समीप खेतों में आलू उगाकर उसे कैशक्रॉप के तौर पर बेचते और किसान उन पैसों से घर गृहस्थी चलाते, और शादी विवाह, रोग-व्याज पर घन खर्च करते।
उसी गाँव के एक प्रगतिशील किसान गोविंद सिंह भी रहा करते थे, जो एक नेक दिल, नेतृत्वकर्ता इंसान थे। वे इतने परिश्रमी तथा खेती में माहिर थे कि उनकी खेती का लोग लोहा मानते। उनकी खेती को देखने ज़िला मुख्यालय से कृषि विभाग के अधिकारी वैज्ञानिक भी आते थे। कृषि विभाग उन्हें प्रायः शासकीय खर्चे पर दिल्ली, हिसार, पंतनगर, कानपुर, हैदराबाद आदि जगहों के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित कृषि प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भेजा करता था। प्रशिक्षणों के उपरांत गोविंद सिंह गाँव व आस पास के किसान भाइयों के हितार्थ लैब टू लैंड कार्यक्रमों को अपने खेत पर चरितार्थ करते थे, जिससे कई गाँवों के किसान उनकी उन्नत कृषि ज्ञान से लाभान्वित होते थे। शायद इसी कारण गोविंद सिंह को कृषक काका भी कह कर पुकारा जाने लगा था। गाँव के आस पास के लगभग सारे किसान उन्हें खेती हेतु अपना मार्ग दर्शक मानने लगे थे। इतना ही नहीं वे दरिद्रनारायणों की सेवा के लिये भी सदैव तैयार रहते थे। गाँव में किसी समस्या के उत्पन्न होने पर लोग उनसे ही सलाह मशविरा करते, और समाधान प्राप्त करते।
समय का चक्र चलता रहा, वक्त ने ऐसा करवट लिया कि भले चंगे गोविंद सिंह को लिवर की बीमारी ने पकड़ लिया। वे प्रशिक्षण हेतु जब बाहर जाते तो ख़ान पान पर विशेष ध्यान न देते। वे मनमौजी किस्म के आदमी थे। गाँव के पास कमलगंज बाज़ार के एक डॉक्टर साहब उन्हें साफ़ सुथरे ढंग से खाने की हिदायत दे भी चुके थे। डॉक्टर साहब ने उन्हें प्रारंभिक दौर में लिव-52 सिरफ व डायजिन टैबलेट लेते रहने को कहा था, जिसे वे अनसुना कर गये थे, फलस्वरूप उनकी लिवर की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गई। अब उन्हें क्रॉनिक हेपेटायटिस की बिमारी ने धर दबोच लिया।
गोबिंद सिंह का मन जो खेती किसानी में लगता था वह अब कम होने लगा। थोड़ा भी श्रम करने पर उन्हें थकान महसूस होने लगती थी। धीरे-धीरे उनका खेती-किसानी से मोहभंग हो गया। रोग ने उनकी शारीरिक ताक़त को ताक पर रख दिया, जहां वे आठ-आठ घंटे लगातार काम करते आब उनके जाँगर में मानों घुन लग गया। हठ्ठा कट्ठा भारी भरकम शरीर क्रमशः कृशगात् हो चला। बीमारी ने ऐसा सितम ढाया की गोविंद सिंह एक दिन बिस्तर पकड़ लिये। हालत दिनों-दिन ख़राब होने लगी। सभी हकीम-वैद्य की दवा बेअसर होने लगी।
उनकी पत्नी मुन्निदेवी ने लोगों के सुझाव पर उन्हें राम मनोहर लोहिया प्राइवेट अस्पताल में ख्याति प्राप्त गैस्ट्रोलॉजिस्ट श्री एम के वर्मा की देख रेख में भर्ती करा दिया। इलाज शुरू हो गया। कुछ समय के बाद मुन्नी देवी अपने मरीज़ की छुट्टी कराकर घर ले आयी। गोविंद सिंह को थोड़ा आराम हुआ, परंतु इतना नहीं कि वे परिश्रम का कार्य व खेती कर सकें।
मुन्नी देवी अपने पति की सेवा शुश्रूषा करने लगीं, उनकी सेवा से रोग पर कुछ ही दिन का नियंत्रण रह पाया। गोविंद सिंह की हालत पुनः बिगड़ते देख मुन्नी देवी अपने सारे ज़ेवरात कमालगंज के एक सेठ के पास गिरवी रख कर 25 हज़ार रुपये उधार ले आयी और उन्हें एक अपने रिश्तेदार के कहने पर शवाई मानसिंह अस्पताल जयपुर लेकर आयीं और भरती कराकर इलाज शुरू कराया। दवा से तो तात्कालिक राहत मिल गयी, परंतु स्थायी समाधान नहीं मिल पाया। जब तक दवा का असर रहता गोविंद सिंह की तबीयत ठीक रहती, दवा छोड़ने पर पुनः दशा जस का तस हो जाती। मुन्नी देवी को अब समझ में आने लगा की बीमारी शायद लाइलाज हो गयी है, लेकिन महिला होते हुए भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया, और वहीं के डॉक्टर के सुझाव पर वे अपने पति को लेकर कानपुर के हैलेट हॉस्पिटल आ गयीं, वहाँ भी कई माह तक चिकित्सा चलती रही परंतु गोविंद सिंह की हालत में मामूली सा सुधार ही दिखा।
हैलेट हॉस्पिटल के डॉक्टर के निर्देश पर वह अपने मरीज़ को घर ले आयीं और घर से ही इलाज होता रहा। लगभग एक दशक के निरंतर चिकित्सा के बावजूद भी गोविंद सिंह के हालात में बहुत संतोषजनक सुधार परिलक्षित नहीं हो रहा था, दवा इतनी महँगीं थी कि मुन्नी देवी के घर की माली हालत बहुत ज्यादा ख़राब होने लगी। कर्ज पर कर्ज़ लेने के कारण मुन्नी देवी पर ग़रीबी के बादल मडराने लगे। गोविंद सिंह के पास कुल 06 बिघे ज़मीन थी। उसमें से 02 बीघे ज़मीन बेचनीं पड़ गयी। शेष 04 बीघे जमीन पुनः गिरवी रखने की नौबत आ पड़ी। एक तरह से लम्बी बीमारी ने मुन्नी देवी के घर की अर्थिकी को चौपट कर दिया। उनके जीते जागते घर को न जाने किसकी नज़र लग गयी। दवा पर बेतहाशा ख़र्च से वह अब पति के इलाज हेतु पैसे कमाने का उपक्रम करने लगीं। वह साइकिल चलाकर अपने गाँव से जनपद मुख्यालय फर्रुखाबाद में काम की तलाश में परियोजना निदेशक दफ़्तर जा पहुँची। पी डी साहब से मिलकर उसने अपने पति की बीमारी व घर की स्थिति बयान की। परियोजना निदेशक मुन्नी देवी की हालत सुनकर द्रवित हो गये और उसे तत्काल विकास खंड कमलगंज के गाँवों में समूह गठन करने का ऑर्डर टाइप कराकर दे दिया।
अब मुन्नी देवी को कुछ पैसे मिलने के आसार दिखने लगे। उसे अब जीवन में आशा की किरण मिल गयी। स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोज़गार योजना के तहत अब मुन्नी देवी गाँव गाँव साइकिल चला-चला कर समूह गठन का कार्य करने लगी, उसने अपने पुरुषार्थ के बदौलत कमालगंज विकास खंड में लगभग 35 समूहों का गठन कर दिया, तत्समय एक समूह गठन हेतु शासन से 10 हजार रुपये मिलते थे। मुन्नी देवी समूह से समृद्धि की ओर कैसे बढ़ें का गुण ग्रामीण बहनों को समझाकर समूह निर्माण कर लगभग 3 लाख रुपये समय समय से भुगतान प्राप्त कर अपने पति का इलाज कराने लगीं, उनको एक तरह से भगवान की कृपा से आय का ज़रिया मिल गया। इलाज के जारी रहने पर भी पति की हालत में कोई गुणात्मक सुधार नहीं दिख रहा था। भोजन न पच पाने के कारण पति की हालत नाज़ुक होते जा रही थीं। जब ईश्वर ने प्रारब्ध में कष्ट ही नसीब कर दिया हो तो आखिर क्या किया जा सकता है?
दूसरे दिन अल सुबह ही उनके पति उनसे एक गिलास पानी मांगकर, पीकर मुन्नी देवी के सामने ही इस संसार से अलविदा हो गये। पूरा गाँव किसान काका की मृत्यु पर दुखी हो गया। मुन्नी देवी पर मानों विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। उसकी दुनियाँ अब पहले से ज्यादा वीरान हो गयी। कभी खिलखिलाता उसका घर मरघट में तब्दील हो गया। मुन्नी देवी लाख कोशिश करने के वावजूद गिरवी रखा खेत ज़ेवर और अपने पति को क्रॉनिक हेपेटायसिस से छुड़ा न सकी। कई बार हजार कोशिश भी एक भाग्य नहीं बदल पाती।
कहानीकार: डॉक्टर दयाराम विश्वकर्मा
लेखक पूर्व ज़िला विकास अधिकारी रहे हैं।