ये कौन हैं, अलग से दिखने वाले लोग : सलिल सरोज


अपने लेख में स्त्री-पुरुष समाज से कटे एवं उपेक्षित हुए हिजड़ा समाज व उसकी दर्दभरी दुनिया पर गहन विमर्श प्रस्तुत कर रहे हैं लेखक सलिल सरोज


कभी-कभी आपके आस-पास के लोग आपकी यात्रा को समझ नहीं पाएँगे। उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि यह उनके लिए है ही नहीं । – जौबर्ट बोथा

’शायद ही कभी, हमारे समाज को ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के दर्द, आघात और पीड़ा का एहसास होता है या  ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जिनके मन और शरीर को उनके स्वाभाविक सेक्स से अलग कर दिया गया हो, की सहज भावनाओं की सराहना करता है। हमारा समाज अक्सर ट्रांसजेंडर समुदाय को उपहास का पात्र बनाता है और गालियाँ देता है। इसी क्रम में इन्हें रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड, स्कूल, कार्यस्थल, मॉल, थिएटर, अस्पताल जैसे सार्वजनिक स्थानों पर दरकिनार कर दिया जाता है। इनके साथ अछूत के रूप में व्यवहार किया जाता है, इस तथ्य को भूलकर कि नैतिक विफलता समाज में निहित या गले लगाने की अनिच्छा में निहित है। हमारे समाज की मानसिकता जो विभिन्न लिंग की पहचान और अभिव्यक्ति को दुत्कारता हो, को बदलने की सख्त आवश्यकता है । (न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन, माननीय उच्चतम न्यायालय, 15 अप्रैल, 2014 को रिट याचिका संख्या 4/2012 राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ द्वारा में निर्णय देते हुए )

ईनक्स (हिजड़े) भारत में सर्वव्यापी हैं, और देश के किसी भी कोने की भीड़ में दूर से खड़े दिख जाते हैं। उनके हाव-भाव से उनकी किस्मत को काफी हद तक निर्धारित किया जाता है। पश्चिम में इंटेरसेक्सुअल लोग स्पष्ट रूप से अलग नहीं होते हैं। इसके विपरीत, भारतीय उपमहाद्वीप में ये अलग समूह और बैंड में रहते हैं और अपने पोशाक और अलग व्यवहार से अलग-थलग पाए जाते हैं। भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देश एकमात्र स्थान हैं जहां हिजड़ों की परंपरा आज भी प्रचलित है। साल्वेशन ऑफ ओप्रेसड ईनक्स के द्वारा  द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में हिजड़ों की संख्या 1 मार्च 2011 तक लगभग 19 लाख है। ये संख्या अनुमानित है, क्योंकि ईनक्स एक गोपनीय और अलग दुनिया में रहते हैं, जिसे उन्होंने बनाया है। स्वयं को  सामान्य रूप से समाज के दुरुपयोग और उत्पीड़न से दूर रखने के लिए। अधिकांश भारतीयों के लिए, आज भी  ईनक्स (हिजड़े) एक ‘पापिष्ठ जीव’ की तरह हैं, जो कि अनन्त घृणा और बारहमासी भय का स्रोत माने जाते हैं। इन्हें समाज असहाय और विचित्र जीव, जो कि यौन शक्ति से वंचित है, जैसा मानता है। यह इस बात से स्पष्ट है कि हम  ‘हिजड़ा’ शब्द का इस्तेमाल दिन-प्रतिदिन की बातचीत में किस तरह से करते हैं। यह अक्सर लोगों को गाली देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यहां तक कि हिंदी शब्दकोश में भी हिजड़ा को अपमानजनक शब्दों में परिभाषित किया गया है। इस शब्द का उच्चारण मात्र ही इसमें निहित अपमान को प्रदर्शित करता है। भारत में ये लोग कलंकित, सामाजिक रूप से हाशिए पर और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के रूप में देखे जाते हैं। भारत में इनका 2,000 साल से भी अधिक समय का इतिहास दर्ज है जिसमें ईनक्स (हिजड़े) समुदाय और उसकी परम्पराओं, जिनमें उनका मूल भी शामिल है और उनके पुरुष से ईनक्स (हिजड़े) बनने के लिए ‘लिंग परिवर्तन’ की सारी तकरीरें शामिल हैं।

ईनक्स (हिजड़े) घरेलू ‘लड़कियों’ के रूप में काम करते हुए काफी सुरक्षित जीवन जीते थे। अमीर लोगों के घर और कई अनुष्ठानों और समारोह में लोगों का मनोरंजन करके अपना पेट पालते थे। हिजड़ों की यह भूमिका ब्रिटिश शासन के आगमन और कई राज्यों के उन्मूलन के साथ समाप्त हुई। इस वजह से उनके पास खुद का समर्थन करने के लिए कोई साधन नहीं बचा। इसलिए, वे आज भारतीय उपमहाद्वीप में इस दयनीय स्थिति में मौजूद हैं। हिजड़ा समुदाय के खिलाफ समकालीन हिंसा की जड़ों का वास्तव में उपनिवेशवाद में आधुनिक कानून के ऐतिहासिक स्वरूप में पहचाना जा सकता है। इसने आपराधिक जनजातियों के अधिनियमन 1871, का रूप ले लिया जो एक असाधारण कानून था, और यह भारतीय दंड संहिता पर आधारित सिद्धांत से बिलकुल भिन्न था। इसके अनुसार अगर एक बार एक जनजाति एक आपराधिक जनजाति के रूप में अधिसूचित हो जाती तो महिलाओं सहित जनजाति के सभी सदस्यों और बच्चों को निर्दिष्ट प्राधिकारी के साथ पंजीकरण करना होता था तथा गैर-स्नातक के साथ अभियोजन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को प्रस्तुत करना होता था ।

ये वे लोग हैं जो मनुष्यों के रूप में, और सपने और आकांक्षाओं वाले लोगों के रूप में याद किए जाना चाहते हैं। उनके पास हमारे बारे में बताने के लिए उतनी कहानियां हैं, जितना हम कभी उनके लिए सोच भी नहीं सकते हैं। उनकी कहानियाँ सिर्फ ट्रांसजेंडर होने की पीड़ा और यातना की कहानी नहीं हैं, बल्कि अद्वितीय और संपूर्ण व्यक्तित्व की जीवटता की यादगार और गहन अनुभव हैं। तो क्या यह बिलकुल सटीक समय नहीं है कि हम भी उन्हें व्यक्तियों के रूप में देखना और सुनना शुरू कर दें, और उन्हें भी बराबरी के दर्जे में ला सकें ?

द ट्रांसजेंडर पर्सन्स ( प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ) बिल 2016 इन समुदायों को बहुत सारी सुविधाएं प्रदान करता है जिससे वो भी स्वयं को इस समाज से जुड़ा हुआ महसूस कर सकें जैसे कि थर्ड जेंडर चुनने की आजादी, नौकरी में व्यवस्थित सीटें और सामाजिक दुर्भावनाओं के खिलाफ कठोर सजा। लेकिन क्या समाज, न्यायालयों के दिखाए राहों पर चलने के काबिल है, यह बहुत ही गंभीर प्रश्न है। कानून विसंगतियाँ जरूर दूर कर सकता है लेकिन इसका समूल उन्मूलन मानसिक और सामजिक चेतना से ही लाया जा सकता है। ये लोग सामान्य लोगों से लैंगिक तौर पर जरूर अलग हो सकते हैं लेकिन किसी भी तरह से शारीरिक क्षमताओं और सामाजिक कार्यों में शामिल होने के लिए अक्षम नहीं हो सकते। जब तक इन्हें भी किसी परिवार के सदस्य की तरह नहीं समझा जाएगा यह अप्राकृतिक विसंगति बहुत हद तक बनी रहेगी।

ट्रांसजेंडर एक विसंगति नहीं है। यह लोगों की वास्तविकता के स्पेक्ट्रम का एक हिस्सा है। जबकि समलैंगिक (गे, लेसबियन), उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, इंटरसेक्स या स्ट्रैट भी होने में कोई शर्म नहीं है, परन्तु होमोफोब, ट्रांसफोब और बिगॉट होने में निश्चित रूप से शर्म और बेइज्जती की अपेक्षा होनी चाहिए।

लेखक लोक सभा सचिवालय, नई दिल्ली के कार्यकारी अधिकारी हैं।

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