Article: Babu Jagat Singh led the first rebellion against the British rule.

आलेख : बाबू जगत सिंह ने की थी ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ पहली बगावत


आलेख


1799 में काशी के बाबू जगत सिंह के नेतृत्व में हुई थी अग्रेजों के खिलाफ पहली जन क्रन्ति

आज भी ब्रिटिश लाइब्रेरी के दस्तावेजों दर्ज है यह जनक्रान्ति

द लास्ट हीरो आफ बनारस बाबू जगत सिंह पुस्तक से हुआ खुलासा


मंगल पांडे की समय से पहले चलाई गई एक गोली ने जंगे आजादी के लिए की गई बगावत को हासिये पर डाल दिया। 1857 की ये बगावत हमारी आजादी को 1947 तक खींचकर ले गई। बितानी हुकूमत से छुटकारे के लिए 1857 को हम स्वतंत्रता के लिए प्रथम युद्ध की संज्ञा देते हैं।

इस बगावत के विफल होने के पीछे कई कारण थे।
* एक साथ एक समय पर बगावत का न होना।
* बगावत के लिए आवश्यक सामग्री का न होना।
* अंग्रेजों का समय से पहले सतर्क हो जाना।
* ब्रितानी हुकूमत के अनुपात में युद्ध सामग्री का न होना।

कुछ ऐसे अनेक कारण थे जिसने बगावत को विफल कर दिया। कुछ ऐसा ही हम इतिहास के पन्नों में आज तक पढ़ते चले आ रहे हैं । कहते हैं इतिहास कुछ तथ्यों से हमें परिचित कराता है तो कुछ तथ्यों को छिपाता भी है। 1857 के पूर्व भी एक बगावत ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ काशी में हुई थी। इस तथ्य को लेकर हमारे समक्ष अभी हाल में एक पुस्तक आई है। इतिहास के आईनो से जब हम धूल साफ करते हैं ,तो कागजात और तथ्यों की रोशनी में बाबू जगत सिंह का नाम उभर कर सामने आता है।
इतिहासकार डा. हमीद अफाक कुरैशी और श्रेया पाठक द्वारा लिखित पुस्तक द लास्ट हीरो ऑफ बनारस कहती है- 1799 में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ काशी में बगावत ब्रितानी हुकूमत के प्रति आक्रोश तो था ही, लेकिन एक दूसरी वजह उस वक्त के गवर्नर जनरल द्वारा 24 दिसंबर 1798 को अंग्रेज अधिकारी चेरी को, वजीर अली के संदर्भ में दिया गया निर्देश भी था। उसने अपने पत्र में कुछ शर्तों के साथ वजीर अली को कोलकाता स्थानांतरित करने का निर्देश चेरी को दिया था। वजीर अली को या मंजूर नहीं था इधर काशी में जमीदारों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई से यहां की जमीदार भी रुस्ट थे।

एक दिलचस्प घटनाक्रम के अंतर्गत बाबू जगत सिंह और वजीर अली की मुलाकात होती है। एक दिन जगत सिंह के पुत्र लक्ष्मी नारायण अपनी सवारी में निकले । दूसरी ओर से वजीर अली भी सैर सपाटे पर निकले थे । घटना 1798 की है दोनों की सवारी आमने-सामने पड़ी, वजीर अली उस युवक से बहुत प्रभावित हुए। परिचय हुआ, युवक के परिवार, रुतबे और रूआब से वह बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने लक्ष्मी नारायण को एक कंठहार पहनाया।
लक्ष्मी नारायण ने अपने पिता से यह पूरा घटनाक्रम जाकर बताया। जगत बाबू ने वजीर अली का छुपा संदेश कंठहार के रूप में देखा और समझा। वह समझ गए कि वजीर अली उनके साथ अच्छे संबंध बनाना चाहते हैं। जगत सिंह ने वजीर अली से मिलने का समय मांगा। दोनों मिले और गहरे दोस्त बन गए।
मुलाकात होती गई और ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ बगावत की लकीर गहरी होती गई। इस बगावत में वजीर अली जहां खुल्लम-खुल्ला ब्रितानी हुकूमत के सामने था वही जगत बाबू नेपथ्य में थे। लोगों को संगठित और लामबंद करना, धनराशि का मुहैया कराना, जगत बाबू की रणनीति का हिस्सा था। वजीर अली को अपने सभी कार्यों में जगत सिंह जैसे एक जोशीले, जोरदार, सक्रिय और क्रियाशील व्यक्ति द्वारा बनारस की जमीदारों और निवासियों को लामबंदी करने में मदद मिली।
बाबू जगत सिंह 5 वर्षों से इस सशस्त्र संघर्ष की प्रतीक्षा कर रहे थे। आखिरकार 14 जनवरी 1799 को सशस्त्र प्रतिरोध को शुरू करने की तारीख मुकर्रर की गई।

14 जनवरी 1799 की योजना की सफलता के लिए बेटाबुर की छावनी में तैनाद ब्रिटिश सेना और मंडुवाडीह में घुड़सवार सेना को बाधित करने की योजना बनाई गई। उपरोक्त सभी गतिविधियों के लिए जगत सिंह ने शहर के भीतर 42 घोड़े और 1300 पैदल सैनिक तथा बनारस के परिवेश में 50 घोड़े और 9900 पैदल सैनिक की व्यवस्था की। इसके अतिरिक्त घाटों और अन्य इलाकों में 1545 लोग इस युद्ध के लिए एकत्रित किए गए। कुल 12837 सैनिक तैनात किए गए। इतने कम समय में इतने लोगों का एक स्थान पर एकत्रित होना, जगत बाबू की कार्य कुशलता और व्यक्तित्व का परिचायक था।
13 जनवरी 1799 को सूर्यास्त के थोड़ी देर बाद चेरी का एक चपरासी जो वजीर अली के दरवाजे पर तैनाद था। वह आया। उसने जमादार चैन सिंह को बताया कि वजीर अली 14 जनवरी 1799 को नाश्ते के लिए चेरी के यहां आमंत्रित है।

आखिरकार 14 जनवरी 1799 को वजीर अली- बिचक सिंह, बाल गोविंद, वारिस अली, इज्जत अली, कल्ब अली बेग , बादल खान, शेख अली, शेख कासिम, मीर अजीजुद्दीन जो वजीर अली के ससुर थे, नूर मोहम्मद, इमाम अली, रहम अली, मिर्जा मुगल और अन्य लोगों के साथ चेरी के निवास पर पहुंचे। ख्याल रहे यह निवास उस वक्त सिकरौल में था। जहां अधिकांश अंग्रेज रहते थे। जो वर्तमान का छावनी इलाका है। वजीर अली अपने अनुयायियों के साथ चेरी के घर में प्रवेश किया जो तलवारों और पिस्तौलों से लैस थे। चेरी के निजी सचिव रिचर्ड इवांस भी वह उपस्थित थे।

तारीफों के सामान्य आदान-प्रदान के बाद बातचीत का विषय बनारस से कोलकाता होने वाली वजीर अली के प्रस्थान की ओर बढ़ चला। मामला गर्म हो चला। जब यह सब चल ही रहा था, तभी वारिस अली उठकर खड़ा हुआ और जोर से चिल्लाया -” देख क्या रहे हैं, इसे मार डालिए।” वजीर अली ने जार्ज फ्रेडरिक चेरी को बेस्टकोट के कलर से पकड़ लिया और अपनी कृपाण को उसके सिर पर दे मारा। चेरी को सतही चोट लगी। वह झपटकर बगीचे की तरफ भागा। लेकिन वारिस अली, नूर मोहम्मद, इमाम अली, रहम अली और मिर्जा मुगल ने उसे धर दबोचा। बारिश अली ने उस पर हमला किया और अपना खंजर उसकी छाती में उतार दिया। अन्य जो पीछे थे उन्होंने चेरी को टुकड़ों में काट डाला। उस दिन वाराणसी में वजीर अली द्वारा काफी कत्लोगारत हुआ। उस दिन के हमले में कुल सात अंग्रेज अफसर मारे गए। मरने वालों में कमांडर चेरी, कैप्टन कानवे, रॉबर्ट ग्राहम और रिचर्ड इवांस शामिल थे।

मृत चारों अंग्रेज अधिकारियों की कब्रे आज भी वाराणसी में मकबूल अलम रोड स्थित ईसाइयों के कब्रिस्तान में है। कमांडर चेरी के घर से कुछ दूर वर्तमान के नदेसर में तत्कालीन मजिस्ट्रेट एम डेविस के घर भी वजीर अली ने अपनी सेना के साथ हमला किया था। जिसमें कुछ संतरी भी मारे गए थे।

14 जनवरी 1799 की इस घटना का कोई भी गवाह आज की तारीख में खोजना मुश्किल है। लेकिन 225 वर्ष के अंतराल के बाद भी काशी की ये कब्रे उस घटना की साक्षी है। और आकाश में चमकता सूरज गवाह है। जो उसे वक्त भी था और आज भी है।

ब्रितानी हुकूमत इस लोम हर्षक हत्या और बगावत से स्तब्ध थी।धर पकड़ जारी हुआ। चेरी का मकबरा काशी में बनाया गया। बाबू जगत सिंह की गिरफ्तारी वजीर अली का साथ देने, साजिश करने, धन और सैनिकों को उपलब्ध कराने के इल्जाम में किया गया।

द लास्ट हीरोआफ बनारस – बाबू जगत सिंह पुस्तक प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 से लगभग 58 वर्ष पूर्व बनारस में जगतगंज राज्य परिवार के पूर्वज बाबू जगत सिंह एवं वजीर अली द्वारा योजनाबद्घ एवं रक्त रंजित सशस्त्र विद्रोह पर प्रकाश डालती हैं। उस विद्रोह की योजना व संचालन बाबू जगत सिंह द्वारा किया गया। परिणाम स्वरूप निजामत अदालत जिसे हम सुप्रीम कोर्ट भी कह सकते हैं के द्वारा बनारस में 22 जुलाई 1799 को बाबू जगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। जिसको तत्कालीन गवर्नर काउंसिल कोलकाता ने अगले ही दिन 23 जुलाई को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया।

इसके उपरांत उन्हें चुनार दुर्ग स्थित कारागार में बंदी रखा गया। और बाद में कोलकाता भेजने का निर्देश पारित किया गया। 10 अगस्त 1799 को जगत बाबू को नदी परिवहन के माध्यम से अंग्रेजों के सशस्त्र बलों की निगरानी में चुनार कारागार से फोर्ट विलियम कारागार कोलकाता के लिए ले जाया गया। 31 अगस्त 1799 को यह यात्रा पूर्ण हुई।

गवर्नर काउंसिल ने 18 अक्टूबर 1799 को जगत बाबू को आजीवन कारावास का स्थान सेंट हेलना द्वीप जो कि दक्षिण अफ्रीका में पड़ता है, निर्धारित किया गया। भारत से सेंट हेलना लगभग 10000 मील और 6140 समुद्री मील पर स्थित है। यह घटना नेपोलियन बोनापार्ट के कारावास से 16 वर्ष पूर्व की है।

19 अक्टूबर 1799 को या फैसला सुनाया गया और 20 अक्टूबर को ही बाबू जगत सिंह को हुगली नदी – गंगा नदी के रास्ते से ऑस्टर्ली नामक जहाज पर रवाना किया गया। किंतु जैसे ही उनकी नाव समुद्र में गंगा सागर के करीब पहुंची बाबू जगत सिंह ने अपने वतन को छोड़ने के बजाय दुनिया छोड़ना बेहतर समझा। आपने गंगा सागर में जहाज से कूद कर जल समाधि ग्रहण कर ली और इतिहास के पन्नों में छूट गई 1799 की यह काशी की बगावत।


डॉ. अरविन्द कुमार सिंह
पूर्व प्रवक्ता, उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी