जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु

जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु : पुस्तक लोकार्पण

पुस्तक लेखक: डाॅ0 रमाकान्त मिश्र

समीक्षा लेखक डाॅ. सदानन्द सिंह: वाराणसी

जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु, डाॅ0 रमाकान्त मिश्र द्वारा लिखा गया
आधुनिक गद्य रुपी की त्रिवेणी है।
उसमें एक ही जगह संस्मरण रेखाचित्र और जीवनी का दर्शन होता है।
अनुभूतियाँ जब भी अवसर पाती हैं अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहती।

जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु, डाॅ0 रमाकान्त मिश्र द्वारा लिखा गया आधुनिक गद्य रुपी त्रिवेणी है। जिसमें एक ही जगह संस्मरण रेखाचित्र और जीवनी का दर्शन होता है। अनुभूतियाँ जब भी अवसर पाती हैं अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहतीं। डाॅ0 मिश्र की पुस्तक ‘जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु’ में अनुभूतियों की सघनता किन्तु सहजता का आकर्षण पाठक को अपनी ओर खींचकर काल्पनिक दुनियाँ से दूर यथार्त के ठोस धरातल पर पाँव रखने को विवश करती है। जहाँ उसे एक ओर आनन्द की अनुभूति होती है तो दूसरी ओर मन आह्लाद से झूम उठता है। जीवन, संघर्ष का पर्याय है। इस बात को डाॅ मिश्र जी अपने व्यक्तित्व की बनावट से ही सिद्ध कर देते हैं। संकल्पित व्यक्ति की जीवन यात्रा में पड़ाव आते हैं, किन्तु यात्रा रुकती नहीं है। उन्होंने जब-जब यादों के झरोखों से झाँक कर अपने अतीत को देखा उन्हें नयी चेतना तथा स्फूर्ति मिली है। उनका अतीत कभी डरावना न होकर प्रेरक रहा।

प्रस्तुत पुस्तक का प्रारम्भ बचपन की यादों से शुरु होता है। गोबरहिया गड़ही में तैरना, बुल्ला-बुल्ली का खेल और माँ का कृत्रिम रोष का वर्णन स्वभाविक और आकर्षक है। उम्र के 72 वें पड़ाव पर पहुँचे डाॅ0 मिश्र को बचपन की ऐसी यादें इस बात का संकेत करती हैं कि बचपन में उनके भीतर कितनी बाल सुलभ चपलता और अल्हड़ता थी। दर्द शरीर में चाहें जहाँ हो कष्टकारक होता ही है लेकिन कान में पानी घुस जाने के कारण उत्पन्न होने वाले दर्द का चित्रण मिश्र जी ने जिस सफाई और ईमानदारी के साथ चिन्हित किया है, वह अनुपम है।

इस पुस्तक में छपे नेत्रदान और शरीरदान का प्रमाणपत्र डाॅ0 मिश्र की दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्प भाव का सबूत देता है। यह कार्य वही कर पाता है जो जानता है-‘‘यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो, समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो। कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को।’’ निश्चित रुप से आँख और शरीर का दान करके मिश्र जी ने अपने जीवन के मनोरथ को पूर्ण कर लिया है। इह लोक और परलोक दोनों का संकल्प पूरा कर लिया। प्रस्तुत पुस्तक ने कला पक्ष की तुलना में भाव पक्ष की भूमि अधिक उर्बर दिखलाती है। भावनयें ही जीवन रुपी वृक्ष को रस प्रदान करती हैं। लोक रस में भरी शब्दों की गगरी इस पुस्तक में सर्वत्र छलकती दिखती है। देशी मुहावरे जो इस पुस्तक के गहना हैं, डाॅ0 मिश्र ने उन्हें कभर पृष्ठ पर देकर पाठकों के भीतर कौतुहल को जन्म दिया है। यह अत्यन्त सराहनीय है। मिश्र जी पूराने अस्तित्व विचार धारा के व्यक्ति हैं। अपने भीतर बैठे ईश्वर से मानों वे सदैव संवाद-रत रहते हैं। उन्होेंने अपने प्राध्यापकीय जीवन में अस्तित्वता के भाव को कभी भी तिरोहित नहीं होने दिया। अपने छोटे से वेतन का कुछ हिस्सा सदैव परमार्थ और देवी-देवताओं में अर्पित करना उनकी आदत थी। जिसका निर्वाह वे आज तक करते आ रहे हैं। देहली विनायक के पूरारी की सेवा तथा मन्दिर की मूर्ति की मरम्मत आदि प्रसंगों को इस पुस्तक में उन्होंने बड़े मनोयोग से लिखा है। डाॅ0 मिश्र अपने मिलनसार स्वभाव के कारण अपने विरोधियों को भी क्षमा करते रहे।

कष्ट सहना और दूसरांे की भलाई करना उनकी नियति रही। प्रस्तुत पुस्तक जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु‘ कुल128 पृष्ठों में लिखी गयी है। प्रसंसकों को संक्षेप में संकेतित किया गया है। विस्तार देकर कल्पना लोक कि यात्रा कराना मिश्र जी का कभी उद्देश्य नहीं रहता। डाॅ0 मिश्र अपने लेखकीय कर्म की शुरुआत काव्य से किए हैं। उनके दो काव्य संग्रह ‘भूलरी न मछली तथा आत्महत्या के तट पर’ प्रकाशित हो चुके हैं। दो निबन्ध संग्रह-संस्मरणत्मक निबन्ध और स्मृति वातायन से अपनी प्रसिद्धी प्राप्त कर चुके हैं। डाॅ0 मिश्र ने दस उपन्यास लिखे हैं। इसके अतिरिक्त चार कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी वर्तमान में भी निर्वाध गति से साहित्य-सृजन में लगी हुई है।

डाॅ0 मिश्र की लेखन कला अद्भुत है। पात्र, देश, समय व परिस्थिति का उन्हें हमेशा ध्यान रहता है। शब्दों के चुनाव में वे कहीं भी वैशाखी का प्रयोग नहीं करते। मौलिकता जैसे उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। यही कारण है कि उनका कथन सर्वकालिक और सार्वभौमिक बन पड़ा है। डाॅ0 मिश्र के जीवन में सुख कम तथा दुःख ज्यादा मिला। उन्होंने कभी भी दुःख से विरत होने के लिए ईश्वर या मनुष्य की गुहार नहीं लगायी। उन्होंने तटस्थभाव से दुःख और सुख को अपने व्यक्तित्व की कसौटी पर उतरते और चढ़ते देखा है। दुःख से कातर नहीं हुए और उन्होंने निराला की तरह दुःख को कोसते हुए यह नहीं कहा किः ‘‘दुःख ही जीवन की कथा रही।

क्या कहूँ आज जो नहीं कही।’’
डाॅ0 मिश्र ने पूरी हिम्मत और सच्चाई के साथ अपने अनुभूत दुखों का चित्रण प्रस्तुत पुस्तक में किया है। भूले-विसरे सुरों को संजोकर दुःख से मुक्ति पायी है। रचनाकार लिखने के बाद मुक्त हो जाता है। डाॅ0 मिश्र भी अपने सुख-दुख की अनुभूतियों को वर्णों, शब्दों और वाक्यों में लिखकर अपने पाठकोें को परोसते रहते हैं। एकाकी जीवन के दुख भी कभी उनके चेहरे पर उतरते नहीं दिखते। हमेशा प्रसन्न, शांत और स्निग्ध, बस यही उनका जीवन है। प्रस्तुत पुस्तक का संदेश भी मेरी समझ से यही बनता है। खटास से मिठास की ओर अग्रसर होना।
मैं डाॅ0 मिश्र के लेखकीय कर्म की सराहना करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उन्हें दीर्घजीवी बनायें ताकि वे हिन्दी साहित्य को समृद्ध करते रहें।

डाॅ0 मिश्र के अनुभव और उनकी साहित्यिक सेवाएं हिन्दी के लेखकों और पाठकों के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा हैं। प्रस्तुत पुस्तक ‘‘जिन्दगी के कुछ अनछुए बिन्दु’’ उनकी आत्मा की अनुगूँज है।