हे राम! तुम्हें आना होगा! : पं. छतिश द्विवेदी ‘कुण्ठित’
भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा के प्रशंगवश उद्गार के संस्थापक की दो कवितायें/गीत
गीत 01
हे राम! तुम्हें आना होगा!
हे राम! तुम्हें आना होगा!
मेरी बहने औ’’ मातायें
दे अग्नि परीक्षा हार गयीं,
कुछ चाकू, छूरी, गोली से
कुछ तेजाबों से मार गयीं,
विखरे जीवन के तिनकों को
चुन-चुन कर अपनाना होगा!
हे राम! तुम्हें आना होगा!
तुम खेल नियति का देखो तो
कितनी पीड़ा बरसाती है?
केवल चीखों से आहों से
ये दुनियां भरती जाती है,
तुमको इन रोने वालों के
होठों से मुस्काना होगा!
हे राम! तुम्हें आना होगा!
कल उसके घर को तोड़ दिये
कल मेरे घर की बारी है,
तुम आकर चले गये कैसे
सब खून-खराबा जारी है,
जग की हालत ऐसी है की
तुमको भी पछताना होगा!
हे राम! तुम्हें आना होगा!
दिन लायेगा सूरज इक दिन
विश्वास सभी का डोल गया,
केवल अंधियारा रहना है
बस्ती में कोई बोल गया,
झूठी फैली अफवाहों को
तुम ही को झुठलाना होगा!
हे राम! तुम्हें आना होगा!
कुछ काफिर कहते हैं मुझको
कहते हैं तेरा राम नहीं,
वो ऊँचे स्वर में बोल रहे
सच्चा है तेरा नाम नहीं,
मैं जाकर छाती फाड़ूँगा
अब तुमको दिखलाना होगा!
हे राम! तुम्हें आना होगा!
गीत 02
सबके अपने राम!
इस जगती में बचा नहीं है एक मनुज निष्काम,
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
आंगन के टुकड़े क्या लिख्खूं
रस्ता रस्ता बांट लिए हैं,
जीवन पथ को कागज जैसे
जस्ता जस्ता काट लिए हैं,
बांटा है भगवान सबों ने अलग अलग है धाम,
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
कहते हैं कि एक जगह ही
हम सबको जाना होता है,
फिर क्यों तेरे मेरे रस्ते
का ऐसे रोना होता है,
राखी की खातिर माटी का कैसा प्राणायाम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
मेरा क्या है मैंने तेरा
सारा रस्ता छोड़ दिया है,
तुमने जितना कहा बनाया
दीवारों को तोड़ दिया है,
थक जाओगे तुम भी झूठे कर लो कुछ विश्राम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
चिंतन शिविरों की धरती पर
खोल दिया मधुशाला कोई,
जहां कभी तप होते थे अब
खोल दिया वधशाला कोई,
अब मदिरालय पता हो गया, मंदिर हैं गुमनाम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
कौन किया है कितना-कितना
या कि अपने आप बढ़ गया,
मैं बस इतना देख रहा हूं
सबका सबका पाप बढ़ गया,
मैं लिखने बैठा हूं बोलो लिख दूं किसके नाम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
फूलों की आंखों में कोई
लाकर कुछ उन्माद भर दिया,
सुंदर भावों की किताब में
दूषित कुछ अनुवाद भर दिया,
कैसी तेरी सुबह लिखूं मैं कैसी तेरी शाम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
तुमने जितना ध्वंस कर दिया
कौन उसे बनवाएगा फिर,
संस्कृति के इतने टुकड़ों को
कौन भला अपनाएगा फिर,
आज बहुत मुश्किल है कहना नवयुग का आयाम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
जाने कब की बात सुना हूँ
उपवन मुस्काते रहते थे,
कलियां भी मुस्काती थीं तब
भ्रामर गुंजाते रहते थे,
सब खुशियों को खेज रहे है सबकी चीखें आम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
दुनिया तेरी प्रबल वासना
कितने तेरे मापदंड हैं
कहीं पुण्य का लोक तुम्हारा
कहीं तुम्हारे पापखंड है
कुछ गलियों की इज्जत कितनी कुछ गलियां बदनाम!
सबका अपना रामायण है सबके अपने राम!
लेखक व कवि पं. छतिश द्विवेदी ‘कुण्ठित’ ‘उद्गार’ संस्था, ‘स्याही प्रकाशन’, ‘अनिवार्य प्रश्न’ अखबार, ‘काशी मनीषी महासभा’ व ‘पीपल लगाओ आन्दोलन’ आदि के संस्थापक व संचालक हैं।