कविता: सुख-दुख दोनों अतिथि हमारे: कंचन सिंह परिहार
कविता: सुख-दुख दोनों अतिथि हमारे : कंचन सिंह परिहार
कभी साथ न दोनों आते,
हरदम रहते आते-जाते,
कब है आना कब है जाना,
कितने दिन कब समय बिताना,
किसको कितना है समझाना,
बुन लेते खुद ताना-बाना,
सूरज-चन्दा जैसे प्यारे।
सुख-दुख दोनों अतिथि हमारे।
डाले कौन कहाँ पर डेरा,
कहाॅ रात हो कहाॅ सवेरा,
देख रहा क्यों दिन में सपना,
किसको कहता है तू अपना,
किसको ज्यादा किसे कहें कम,
किसको खुशिया किसे कहें गम,
इनके आने पर ही जीवन
में होते हैं वारे-न्यारे।
सुख-दुख दोनों अतिथि हमारे।
नाते-रिश्ते बोली भाषा,
जीवन की सच्ची परिभाषा,
अपना और पराया कौन,
बतलाते ए रहकर मौन,
रात अमावस भी आनी है,
कब मिलते हरदम उजियारे,
सुख-दुख दोनों अतिथि हमारे।
कोई कहता दुख है सच्चा,
कुछ को लगता सुख ही अच्छा,
जोड़ रहा कर्मो से कोई,
भाग्य कोसता रोता कोई,
कब हो राजा बने फकीर,
ए ही तय करते तकदीर,
राजा रंक सभी से यारी,
हर घर जाते बारी-बारी,
दोनों लगते हमको प्यारे।
सुख-दुख दोनों अतिथि हमारे।
कवि/लेखक राजकीय जिला पुस्तकालय वाराणसी के पुस्तकालयाध्यक्ष हैं।