पुस्तकों का दान अब जरुरी होता जा रहा है! लेेखक सलिल सरोज की कलम से…
“एक बार जब आप पढ़ना सीख लेते हैं, तो हमेशा के लिए आजाद हो जाते हैं।” – फ्रेडरिक डगलस
पुस्तकें आपको सोचने-समझने पर विवश करती है और मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए पुस्तकों के करीब होने की अप्रतिम जरूरत है। जिज्ञासा ही मानव जाति को आगे बढ़ने और नित नए आविष्कार करने की तरफ प्रेरित करती हैं। जिस मनुष्य में नई चीज़ों के प्रति उत्सुकता ख़त्म हो चुकी है, उसने ज़िन्दगी जीने की कला का अनुभव ही नहीं किया है। इसी देश में केरल राज्य की 80 वर्षीय महिला का कम्युनिटी सेंटर पर कंप्यूटर सीखने की ललक का भी उदाहरण है और हमारे देश का एक ऐसा वर्ग भी है जिनके घरों में किताबें धूल फाँकती हुई अंतिम साँसें गिन रही हैं। किसी काम के ना करने के सौ तर्क और बहाने हो सकते हैं लेकिन उस काम को करने का एक ही बहाना है कि उसको करना है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी कहा है कि किसी कार्य के पहले उस कार्य की अधि- विवेचना उस कार्य के ना करने के करीब ले जाती है। किताबों से इश्क़ के ज़माने शायद लड़ गए हैं या फिर वो इश्क़ सिर्फ सेल्फी लेने या सोशल मीडिया पर पोस्ट करने तक ही रह गई है और इस बात की पुष्टि किताब की खाली दुकानों और हर हाथ में मोबाइल को देखकर समझा जा सकता है। मशहूर गीतकार और निर्देशक गुलज़ार की निम्न कविता में किताबों के एकाकीपन का दर्द खूब छलक कर आता है –
“किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं
जो शामें उन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर
गुज़र जाती हैं कम्पयूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो क़द्रें वो सुनाती थीं
कि जिन के सेल कभी मरते नहीं थे
वो क़द्रें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वो सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मअ’नी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मअ’नी नहीं उगते
बहुत सी इस्तेलाहें हैं
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़बाँ पर ज़ाइक़ा आता था जो सफ़्हे पलटने का
अब उँगली क्लिक करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है पर्दे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर
नीम सज्दे में पढ़ा करते थे छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और
महके हुए रुकए
किताबें माँगने गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उन का क्या होगा
वो शायद अब नहीं होंगे! ”
किताबें इश्क़ की इबारत लिख सकती हैं तो इतिहास बनाने और बदलने का भी जिगर रखती हैं। किसी ने सही कहा है कि तानाशाहों को सबसे ज्यादा डर किताबों से ही लगता है। किताबें वाद-विवाद और प्रश्न करना सिखाती हैं, किसी भी चीज़ पर प्रश्न खड़ा कर सकती हैं और एक निरीह को सशक्त बना सकती है। इंदिरा गांधी भी कहती हैं कि जो शिक्षा आपको सबल ना कर पाए, वो व्यर्थ है। किसी भी राष्ट्र की खुशहाली और शक्तिशाली होने के पीछे भी किताबें ही हैं। जिस देश की साक्षरता दर जितनी ज्यादा है वह राष्ट्र उतना ही उन्मुक्त है और नए विचारों को बढ़ावा देता है।
आज पूरी दुनिया मोबाइल पर पढ़ने-लिखने की तरफ भाग रही है लेकिन पढ़ने और पढ़ाने के लिए आज भी “चॉक एन्ड टॉक” पद्धति से कारगर दूसरी पद्धति नज़र नहीं आती। पढ़ने का अर्थ एक-दूसरे से चर्चा करना भी है जो मोबाइल हमसे छीनती जा रही है – शब्दों के साथ चेहरे के भाव नहीं मिलते सोशल मीडिया की दुनिया में। आज भी हमारे देश एक बहुत बड़ा भाग डिजिटल मिडिया से दूर है; वजहें कई हैं – गरीबी, तकनीक की कमी, अपनी लोकल भाषा में जानकारी ना मिल पाना इत्यादि। अतः जरूरत है किताबों के दान की। हर घर में जहाँ बच्चे स्कूल जाते हैं और जिनके पैरेंट्स अच्छी जॉब कर रहे हैं या जो लोग किताबों के शौक़ीन हैं, वहाँ साल-दर-साल पुरानी किताबें जमा होती रहती हैं जिन्हें किसी और तक पहुँचने की सख्त जरूरत है। यदि आपके आस-पास जरूरतमंद बच्चे हैं तो किताबें उन्हें देकर ज्ञान बाँटने से बढ़ता है वाली परम्परा को आगे बढ़ाएँ या फिर आस पास के लाइब्रेरी में दें। कबाड़ी के पास अमूल्य ज्ञान को कौड़ी के भाव बेचने से बेहतर है कि उन्हें किसी और को दे कर एक पढ़ी-लिखी पीढ़ी के निर्माण में अपना योगदान दें। पढ़ने की संस्कृति विकसित करने में किताबों की उपलब्द्धता सबसे बड़ी शर्त है और हम सब उस शर्त को पूर्ण करने में अपना अहम् योगदान कर सकते हैं।
“यदि मैं किताब होती, तो मैं लाइब्रेरी की किताब बनना पसंद करती, ताकि हर तरह के बच्चे मुझे उठाकर घर ले जाते।” -कॉर्नेलिया फंके
यह लेखक के अपने विचार हैं।
सलिल सरोज, कार्यकारी अधिकारी
लोक सभा सचिवालय, नई दिल्ली