Investigative Journalism's End or Comma - Virendra Bahadur Singh

इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म का अंत या अल्पविराम? – वीरेंद्र बहादुर सिंह


दिल्ली में एक पुस्तक के लोकार्पण के दौरान भारत के मुख्य न्यायमूर्ति एन.वी.रमण ने अपने भाषण के दौरान कहा था कि ‘देश में इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म का अंत आ गया है। देश में खोजी पत्रकारिता का युग अब समाप्त हो गया है। अब इस तरह की पत्रकारिता दिखाई नहीं देती। पहले अखबारों में जिस तरह घोटालों का पर्दाफाश होता था, अब उस तरह के समाचार दिखाई नहीं देते। मैं ने जब जवानी में कदम रखा था, तब जिस तरह के तेजाबी समाचार छपते थे, अब वैसा कुछ दिखाई नहीं देता। अब वह जमाना दिखाई नहीं देता। मीडिया को संस्थागत और व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को उजागर कर के समाज को आईना दिखाना चाहिए।’
याद रहे कि चीफ जस्टिस आफ इंडिया एन.वी.रमण का कैरियर तमिल अखबार ‘इनाडु’ के पत्रकार के रूप में शुरू हुआ था। काफी समय तक उन्होंने पत्रकार के रूप में काम किया था।

देश के मुख्य न्यायाधीश की बात पर मीडिया जगत से जुड़े हर किसी को आत्मचिंतन करने की जरूरत है। जिस तरह फिल्मों के विषय और विषयवस्तु बदला है, उसी तरह पिछले 7 दशकों में मीडिया का स्वरूप भी बदला है। पहले मद्रास की कंपनियां ‘मैं चुप रहूंगी’ से ले कर ‘गृहस्थी’ जैसी फिल्में बनाई थीं। राजकपूर ने के. अब्बास की कहानियों पर गरीबों और फुटपाथ पर रहने वालों पर फिल्में बनाईं थीं। उसके बाद ‘संगम’ जैसी प्रेमत्रिकोण की फिल्में बनाईं। उसके बाद नासिर हुसैन जैसे निर्माताओं द्वारा निर्मित रोमांटिक फिल्में आईं। उसके बाद डाकुओ के विषय पर आधारित ‘शोले’ जैसी फिल्में बनीं। इनका भी अंत आ गया। अब कोई ‘काबुलीवाला’ जैसी फिल्म बनाए तो उसे दर्शक ही नहीं मिलेंगें। ट्रेजेडी फिल्मों की भी करुणांतिका आई। अब तो फिल्मों का कोई सब्जेक्ट ही नहीं है।

बस, ऐसी ही परिस्थिति देश के मीडिया की और पाठकों की बदलती रुचि की हुई है। प्रिंट मीडिया तो अभी भी थोड़ी-बहुत जिम्मेदारी निभा रहा है, पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टीवी पर होने वाली डिबेट तो लगता है जैसे मारपीट हो रही है। टीवी स्क्रीन पर जो लड़ाई-झगड़ा होता है, वह सास-बहू के झगड़े जैसा लगता है। ब्रिटेन और अमेरिका में सालों से न्यूज चैनल चल रहे हैं, परंतु भारत के इलेक्ट्रॉनिक न्यूज मीडिया पर दिखाई देती लड़ाई बीबीसी या सीएनएन पर दिखाई नहीं देती। हां, टीवी न्यूज चैनल पर कोई विशेषज्ञ अपना अभिप्राय प्रकट करे तो जरूर स्वागत लायक है। कभी-कभी तो देश के नेशनल न्यूज चैनल्स के कुछ एंकर्स किसी के तरफदारी का या विरोध का एजेंडा चलाते हुए लगते हैं। टीवी पर डिबेट स्वागत योग्य है, पर वह गौरवपूर्ण होनी चाहिए, लोकप्रियता के लिए नहीं।

अमेरिका से प्रकाशित होने वाले ‘दि वाशिंग्टन पोस्ट’ की पूर्व संपादक श्रीमती कैथरीन ग्रेहाम ने पत्रकारों के लिए कहा है कि ‘We are nither here to be respected nor to de popular, we are here to de believed अर्थात हम यहां (पत्रकार) हैं तो कोई सम्मान पाने या लोकप्रिय होने के लिए नहीं, हम जो लिखते हैं, लोग उस पर विश्वास करें, इसके लिए यहां हैं।’

दूसरी ध्यान देने वाली बात यह है कि आज जिस किसी के भी पास स्मार्ट फोन है, वे सब खुद को पत्रकार समझते हैं। ह्वाटसएप, इंस्टाग्राम या फेसबुक पर परोसा जाने वाला ज्ञान दोधारी तलवार जैसा है। उसमें आधा सच और आधा झूठ होता है। मीडिया जो नहीं बताता या नहीं लिखता, वह उजागर करता है और कभी-कभी तो मोब लिचिंग के लिए उकसाने वाली अफवाहें भी फैलाता है। जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेशों में तो तमाम आतंकवादी समूह युवाओं को गलत राह दिखा कर आतंकवादी बनाने के लिए उकसाते हैं, जो बहुत ही खतरनाक है।

यहां यह भी ध्यान देना जरूरी है कि मीडिया के ही कारण तमाम बड़े-बड़े दिग्गज एक ही झटके में जमीन पर आ गए हैं। 1970 के दशक में अमेरिका में प्रेसीडेंट निकसन थे। उनका ‘वाॅटर गेट’ घोटाला अमेरिका की मीडिया ने ही उजागर किया था। वाॅटर गेट एक बिल्डिंग का नाम है, जहां विपक्ष का आफिस था। वहां का टेलीफोन टेप कराने के कारण प्रेसीडेंट निकसन को इस्तीफा देना पड़ा था। अमेरिका में किसी का भी टेलीफोन टेप करना गैरकानूनी है।

जवाहरलाल नेहरू के समय सेना के लिए तोपें खरोदने में एक कथित घोटाला हुआ था। उस घोटाले में जवाहरलाल नेहरू का कोई रोल नहीं था। कहा जाता है कि आजादी के बाद सब से पहला विवादास्पद घोटाला उनके ही कार्यकाल के दौरान लंदन में नियुक्त भारतीय उच्चायुक्त वी.के.कृष्णमेनन द्वारा किया गया था। 1948 से 1952 के दौरान मेनन को नेहरू ने हाईकमिश्नर के रूप में नियुक्त किया था। लंदन में रहते हुए उन्होंने एक ऐसी कंपनी को सेना के लिए 2 हजार तोपें खरीदने का आर्डर दिया था, जिस कंपनी में मात्र 2 या 3 आदमी काम करते थे। कंपनी के पास नाममात्र की पूंजी थी। इस घोटाले के बारे में पहले मीडिया और उसके बाद संसद में भारी हंगामा मचा था। नेहरू ने तोपों का सौदा रद्द कर दिया था और कृषणमेनन को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। अलबत्त, 1955 में यह केस बंद कर दिया गया था। उस समय यह सौदा 80 लाख रुपए में हुआ था।

इसी तरह 1958 में हरिदास मुंद्रा द्वारा स्थापित लगभग 6 कंपनियों में लाइफ इंश्योरेंस आफ इंडिया 1.2 करोड़ रुपए संबंधी एक मामला उजागर हुआ था। यह घोटाला भी अखबारों में खूब चमका था। इसी की वजह से तत्कालीन वित्तमंत्री वी.वी.कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था। जबकि मुंद्रा को जेल जाना पड़ा था।
1960 में धर्मा तेजा नाम के एक बिजनेसमैन को एक शिपिंग कंपनी शुरू करने के लिए सरकार के पास से 22 करोड़ का लोन व्यक्तिगत रूप से दिया गया था। पर धर्मा तेजा ने इस पैसे को देश से बाहर भेज दिया। अखबारों में इस घोटाले के उजागर होते ही उसे यूरोप में गिरफ्तार किया गया था। उसे 6 साल की कैद भी हुई थी। पर उसमें से एक भी रुपिया वापस नहीं आया था।

1961में उड़ीसा के उस समय के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने अपनी ही कंपनी ‘कलिंग ट्यूब्स’ को एक सरकारी कांट्रेक्ट देने की बात सामने आई थी। उसके बाद बीजू पटनायक को इस्तीफा देना पड़ा था।
1981 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ए.आर.अंतुले पर भी आरोप लगा था कि उन्होंने सीमेंट कंपनियों का सीमेंट लोगों के काम के बजाय प्राइवेट कंपनियों को दे दिया था। मुंबई से निकलने वाले एक अंग्रेजी दैनिक अखबार में इस कथित घोटाले के उजागर होते ही ए.आर.अंतुले को इस्तीफा देना पड़ा था। उसके बाद 1987 में बोफोर्स घोटाला चर्चा में आया था।

इसके बाद हर्षद मेहता का सिक्योरिटी स्कैंडल 1992 में चमका। हर्षद मेहता पर आरोप था कि बैंकों के साथ धोखाधड़ी कर के बैंकों से पैसा ले कर पैसा स्टाक मार्केट में लगा दिया था। कहा जाता है कि जिसकी वजह से स्टोक मार्केट को 5 सौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।

इसके अब्दुल करीम तेलगी नकली स्टैम्प पेपर घोटाला, केतन पारेख का 1,15,000 करोड़ का स्टोक मार्केट घोटाला भी अखबारों में चमका था। 2008 में देश की सब से बड़ी साफ्टवेयर कंपनी सत्यम कंप्यूटर्स के संस्थापक रामलिंगा राजू का 8 हजार रुपए का सत्यम घोटाला बाहर आया। 2008 में मधु कोड़ा का 4 हजार रुपए का मनी लांड्रिंग घोटाला चमका। 1980 में 120 करोड़ रुपए का एयर बस घोटाला बाहर आया। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद का चारा घोटाला भी खूब चर्चा में रहा। 1996 में 1200 करोड़ का दूरसंचार घोटाले ने भी लोगों को चौंकाया। मध्यप्रदेश का व्यापम घोटाला भी बहुचर्चित रहा। 1996 में 133 करोड़ का यूरिया घोटाला भी काफी विवाद में रहा।

इसके अलावा देवास एंट्रिक्स सौदा घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला और कामनवेल्थ गेम घोटाला भी अखबारों की सुर्खियों में रहे। इसके अलावा विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों के घोटाले भी बाहर आए। इन सभी घोटालों को उजागर करने में मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है।
यहां यह ध्यान देने की बात है कि 1956 में केंद्र सरकार ने गुजरात और महाराष्ट्र को संयुक्त द्विभाषी राज्य बनाने का निर्णय लिया तो गुजरात की जनता को इस बात का प्रचंड विरोध था। पर उस समय कांग्रेस में सर्वोच्च नेता माने जाने वाले मोरारजीभाई देसाई द्विभाषी राज्य के आग्रही होने की वजह से गुजरात की जनता ने मोरारजीभाई की ओर से गुजरात कांग्रेस की सरकार और नेताओं के सामने जबरदस्त आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन में जनता पर गोली भी चलाई गई थी। परंतु गुजरात के अखबारों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। अंत में 1960 में गुजरात को अपना अलग राज्य मिला था।

गल्फ वार के समय ईराक की जमीन पर बमबारी के दौरान साहस के साथ वहां जा कर लाइव रिपोर्टिंग करने वाली सीएनएन की जांबाज रिपोर्टर क्रिस्टीना एमनपोर ने महीनों तक इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग की मिसाल कायम की थी। वह आज भी सब को याद है। इसी तरह दूसरा नाम यानी इटालियन लेडी रिपोर्टर ओरियाना फलासी, जिन्हें ईरान के आयतुल्ला खुमानी, लीबिया के कर्नल गद्दाफी आदि का साहस के साथ इंटरव्यू ले कर अप्रतिम इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की श्रेणी हासिल की थी, वह पत्रकारिता की दुनिया के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा चुका है। देश की मीडिया को इस बारे में आत्मचिंतन करने की जरूरत है।


ये लेखक के अपने विचार है।