आलेख: बाजारवाद की हमजोली बना दी गई सुन्दरता: सलिल सरोज
भौतिक युग में आज तक अपरिभाषित सुन्दरता, उसमें भटके स्त्री समाज और उसपर सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के षणयन्त्र से आधिपत्य किए पूँजीवाद के क्षद्म की बेमिशाल भाव परिक्रमा कर रहे हैं वरिष्ठ लेखक सलिल सरोज
अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लाइड की मृत्यू के बाद से ही दुनियाभर में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। ब्लैक लाइव मैटर के नाम से सेलिब्रिटीज से लेकर हर कोई इससे जुड़ रहा है। रंगभेद को लेकर लोगों का गुस्सा फेयरनेस क्रीम पर भी बरस रहा है क्योंकि लोगों का मानना है कि इस तरह की क्रीम लोगों में भिन्नता को उत्पन्न करती है। हिंदुस्तान यूनीलीवर ने अपने 45 साल पुराने प्रोडक्ट श्फेयर एंड लवलीश् क्रीम पर एक बड़ा फैसला किया है। क्रीम के नाम से फेयर शब्द को हटाया जा रहा है। यूं तो लोग इस तरह के फेयरनेस क्रीम का विरोध आज से नहीं बल्कि लंबे समय से कर रहे हैं क्योंकि ऐसी चीजें रंगभेद को बढ़ावा देती हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से ब्लैक लाइव मैटर अभियान ने काफी जोर पकड़ा है और अब यूनीलीवर को भी झुकना पड़ रहा है। गौरतलब है कि सिर्फ पिछले साल भारत में फेयर एंड लवली ने करीब 3.5 हजार करोड़ का बिजनेस किया था।
इतिहास गवाह है कि सदियों से समाज सिर्फ स्त्री की देह का कायल है, उसके दिमाग और हुनर का नहीं.। स्त्री के अंतहीन श्रम को इतने खुले तौर पर कभी मान्यता नहीं दी गई, जितनी कि उसके देह के सौंदर्य को। क्या यह महज इत्तेफाक है कि आज दुनियाभर में होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं की बुनियाद सिर्फ दैहिक सौंदर्य है? भारत के आजादी वर्ष यानी 1947 में होने वाली पहली भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में भी सिर्फ दैहिक सुंदरता को केन्द्र में रखा गया था, न कि आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली स्त्रियों के जज्बे, श्रम और साहस को।
एक प्रतिष्ठित लेखक अपनी किताब ‘स्त्रीत्व का उत्सव‘ लिखने की शुरुआत ही ‘पृथ्वी की सुंदरतम सृष्टि स्त्री है‘ लिखकर करते हैं। असंख्य बार यह जुमला सुनने व पढ़ने को मिलता रहता है। ज्यादातर बौद्धिक, ज्ञानी, रचनात्मक, विवेकवान और प्रगतिशील पुरुष स्त्री को सृष्टि की सुंदरतम रचना कहते हैं। असल में स्त्री को सृष्टि की सुंदरतम रचना कहने के मूल में दैहिक सौंदर्य की अटूट उपासना का ही भाव ही है। यह बात हमारे इतिहास और हर तरह के रचनात्मक पक्ष में साफ तौर पर उभर कर आती है।
खूबसूरत कविताएं रचने वालीं कवयित्री निर्मला पुतुल की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
‘वे दबे पांव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ाई करते हैं
वे तुम्हारी आंखों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते है, वे कौन हैं……?
सौदागर हैं वे….समझो…पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू…..पहचानो…‘
सौंदर्य दृष्टि पर राम मनोहर लोहिया ने दिलचस्प सवाल उठाया है कि दुनिया में गोरा रंग ही सुन्दर क्यों माना जाता है ? उनका उत्तर है कि वह इसलिए कि दुनिया पर गोरी चमड़ी वालों का शासन रहा है। यदि काले लोगों का रहा होता तो काला रंग सुन्दर माना जाता। इसलिए गोरी और पतिव्रता सीता-सावित्री वाले भारतीय नारी आदर्श की जगह कृष्णा यानी द्रोपदी का आदर्श वे सामने रखते हैं। द्रोपदी साँवली थी, उसके पांच पति थे और वह तीखे सवाल उठाती थी। कुरु राजसभा में अपने सवालों से उसने बड़े-बड़ों को निरुत्तर कर दिया था। उन्हें सवाल उठाने वाली द्रौपदी ज्यादा पसन्द थी। रंगों के सौंदर्य के साथ आदर्शों का भी अपना सौंदर्य होता है। लोहिया समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य के इन प्रतिमानों को बदलने की बात करते हैं और सौन्दर्य को देखने की जो हमारी जड़ीभूत दृष्टि है उस पर जबर्दस्त हमला करते हैं और इस तरह से समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य दृष्टि के परिवर्तन पर जोर देते हैं। इससे पता चलता है कि वास्तविक परिवर्तन सिर्फ सत्ता बदल जाने से ही नहीं, सुन्दरता सम्बन्धी सोच को भी बदलने से होगा। इससे यह भी पता चलता है कि सौन्दर्य दृष्टि के मूल में भी राजनीति होती है। सौंदर्य दृष्टि में परिवर्तन का अर्थ है राजनीतिक सोच में भी अंतर आना। सोच में परिवर्तन आने से न सिर्फ सामाजिक आदर्शो को देखने के नजरिए में फर्क आता है बल्कि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान भी बदलते हैं।
सामाजिक सोच के बदलने से साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय सोच में कैसे फर्क आता है इसका दिलचस्प उदाहरण है कबीर का काव्य। कभी कबीर की कविता को अनगढ़ कहकर कमतर महत्व दिया गया था, लेकिन प्रश्नाकुलता जैसे ही आधुनिकता की कसौटी बनी, प्रश्न उठानेवाले कबीर महत्वपूर्ण हो उठे। उनके अनगढ़पन के सौंदर्य के वैशिष्ट्य पर भी साहित्य चिंतकों का ध्यान गया। प्रपद्यवादी कवि केसरी कुमार ने, जिनपर लोहिया के विचारों का गहरा असर था, कबीर काव्य के अनगढ़ के सौन्दर्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। कबीर चूँकि व्यंग्य के कवि हैं। व्यंग्य के जरिए कवि दूसरों पर चोट करता है। केसरी कुमार के अनुसार कबीर की कविता उस पत्थर की तरह है जिसकी मारक क्षमता उसके अनगढ़पन के कारण बहुत बढ़ जाती है। कबीर के अनगढ़पन के सौंदर्य को देखनेवाली यह साहित्य दृष्टि पिछली सभी दृष्टियों से भिन्न है। इस भिन्नता का मूल कारण साहित्य-सौन्दर्य के प्रतिमानों में निरन्तर हो रहा परिवर्तन है। यह दुनिया यदि परिवर्तनशील है और रोज बनती है तो साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान कैसे स्थिर होंगे ? इसके उदाहरण हमारे साहित्य-इतिहास में भरे पड़े हैं। भरत मुनि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक भारतीय साहित्यशास्त्र का जो गहन विस्तार है, वह इस बात का प्रमाण है कि साहित्य-सौन्दर्य की हमारी दृष्टि गतिशील रही है और उसमें जीवन की तरह वैविध्य के अनेक रंग हैं। भक्तिकाव्य को देखनेवाली परलोकवादी दृष्टि को रामचंद्र शुक्ल ने लोक के धरातल पर प्रतिष्ठित करके हिंदी आलोचना की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित कर दिया। तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं, लोक-कल्याण हेतु वे विविध लीलाएं करते हैं, उनके अंगों की तुलना उन्होंने कमल से की है-हाथ, पैर, नेत्र आदि सभी कमलवत हैं। तुलसीदास के प्रशंसक शुक्लजी को राम इस कारण प्रिय नहीं हैं, उन्हें राम इसलिए प्रिय हैं कि उनमें शुक्लजी को कर्म का सौन्दर्य नजर आता है। परलोकवादी साहित्य दृष्टि को लोकवादी बनाने में कर्म के सौंदर्य की प्रधान भूमिका है, जिसकी शुक्ल विरोधी प्रायः अनदेखी करते हैं। कर्म का सौन्दर्य ही साहित्य की आधुनिक दृष्टि का मूल आधार है। वैष्णव भावना से संचालित तुलसीदास, जिसे वे जगत जननी मानते हैं, उस सीता के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि वे छवि-गृह में जलते हुए दीप की शिखा जैसी सुंदर हैं-‘ सुन्दरता कहुं सुंदर करइ, छविगृह दीप सिखा जनु बरइ।’ वैष्णव चेतना के साथ सौंदर्य चेतना में कैसे भारी परिवर्तन उपस्थित होता है, इसका दिलचस्प उदाहरण है मैथिलीशरण गुप्त का राम सम्बन्धी काव्य। तुलसीदास की सीता सुकुमारता की पराकाष्ठा हैं, ऐसी कि तुलसी के सामने यह समस्या है कि सुन्दरता की सारी उपमाएं कवियों ने जूठी कर दी हैं, सीता की उपमा किससे दी जाए-‘ सब उपमा कवि रहे जुठारी। केहिं पटतरों विदेह कुमारी।।’ लेकिन आधुनिक वैष्णव कवि गुप्तजी की सीता कैसी हैं? माता तो वे गुप्तजी की भी हैं, पर दूसरे अर्थ में। पंचवटी का जो सुंदर दृश्य है, वह यह कि ‘ सीता मइया थीं, आज कछोटा बांधे ं’द्य कछोटा बांधकर श्रम करती हुई सीता आधुनिक युग की श्रमशील स्त्री हैं। तुलसीदास के युग से गुप्तजी के समय तक सीता का रूप बदला है तो इसका कारण यह है कि सौंदर्य को देखने की हमारी दृष्टि बदल गई है।
लोगों ने बहुत पहले ही कयास लगाना शुरू कर दिया था कि इंटरनेशनल कॉस्मेटिक ब्रांडों की नजर भारत के बाजार पर थी इसीलिए भारतीय सुंदरियों को खिताब दिया गया। ये बात काफी हद तक सच भी है। आखिर लक्मे, चैंबर), एल्ले18, एवन, कलर बार, मेबलीन, लोरियल, एमवे, रेवलॉन जैसे इंटरनेशनल ब्रांड ने भारतीय बाजार पर अपना कब्जा जमा ही लिया है, तो इसमें सौंदर्य प्रतियोगिताएं और फिल्म फेस्टिवल्स का ही तो मुख्य योगदान रहा है. यह भी दिलचस्प है कि जैसे ही भारतीय बाजार पर इनका एकाधिकार हुआ तो मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स का तो भारत में जैसे अकाल ही पड़ गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तो परिभाषा ही ‘बहु-राष्ट्रीय’ है. हालाँकि, कुछ भारतीय कंपनियां भी जरूर उभर रही हैं जैसे, शहनाज हुसैन, हिमालया, बायोटिक, लोटस, कलरसेंस, जोविस और अब कुछ उत्पादों के साथ बाबा रामदेव की पतंजलि भी आ चुकी है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि लोगों की जुबान पर चढ़े बड़े विदेशी ब्रांडों को हटाना इनके लिए कितना आसान है।
सौंदर्य प्रतियोगिता एक ऐसी प्रतियोगिता है, जिसमें पारंपरिक रूप से प्रतियोगियों की शारीरिक विशेषताओं को पहचानने और रैंकिंग करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। हालांकि, अधिकांश प्रतियोगिताएं व्यक्तित्व, गुणों, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा को शामिल करने और न्यायाधीशों के सवालों के जवाब देने पर आधारित होती हैं। ऐसी सौंदर्य प्रतियोगिताएं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर आयोजित की जाती हैं। सौंदर्य प्रतियोगिताएं आमतौर पर बहु-स्तरीय होती हैं, जिसमें स्थानीय प्रतियोगियों को बड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए आगे बढ़ाया जाता है। जैसे-अंतरराष्ट्रीय पेजेंट में सैकड़ों या हजारों स्थानीय प्रतियोगिताएं होती हैं। सौंदर्य प्रतियोगिता के विजेता को अक्सर ब्यूटी क्वीन कहा जाता है। इन प्रतियोगिताओं में शामिल होने के लिए और अपने शरीर को सजाने-संवारने के लिए सभी प्रतिभागी कॉस्मेटिक्स का इस्तेमाल करती हैं।
कॉस्मेटिक्स ऐसे पदार्थ होते हैं, जो मानव शरीर के सौंदर्य को बढ़ाने या सुगंधित करने के काम आते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों का सौंदर्य अथवा मोहकता बढ़ाने के लिए या उनको स्वच्छ रखने के लिए शरीर पर लगाई जाने वाली वस्तुओं को कॉस्मेटिक कहते हैं। कॉस्मेटिक्स प्राकृतिक या कृत्रिम दोनों प्रकार के होते हैं। ये विशेष रूप से त्वचा, बाल, नाखून को सुंदर और स्वस्थ बनाने के काम आते हैं। ये व्यक्ति के शरीर की गंध और सौंदर्य की वृद्धि करने के लिए लगाए जाते हैं। शरीर के किसी अंग पर सौंदर्य प्रसाधन लगाने को ‘मेक-अप’ कहते हैं। इसे शरीर के सौंदर्य निखारने के लिए लगाया जाता है। ‘मेक-अप’ की संस्कृति पश्चिमी देशों से आरम्भ होकर भारत सहित पूरे विश्व में फैल गई है। ‘मेक-अप’ कई प्रक्रियाओं की एक श्रृंखला है जो चेहरे या संपूर्ण देह की छवि को बदलने के काम में आती है। यह किसी प्रकार की कमी को ढकने या छिपाने के साथ-साथ सुंदरता को उभारने का काम भी करती है। ये उत्पाद रिटेल स्टोर, ब्रांड आउटलेट्स और सुपरमार्केट में उपलब्ध रहते हैं। वर्तमान समय में, कई ऑनलाइन चैनल भी ग्राहकों के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। व्यक्तिगत देखभाल और सौंदर्य उत्पाद की बिक्री बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक 2015 से 2020 के बीच इसमें 3.5 से 4.5 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है और 2020 तक 500 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। एशिया में इसका कारोबार खूब फल फूल रहा है। इस क्षेत्र में बढ़ती मांग का श्रेय इसकी बढ़ती हुई जनसंख्या को जाता है। अमेरिका में बढ़ती हिस्पैनिक आबादी शानदार व्यक्तिगत देखभाल ब्रांडों के लिए मांग बढ़ा रही है।
सौंदर्य या कॉस्मेटिक उत्पाद उद्योग उन क्षेत्रों में से एक है जो अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव के बावजूद अप्रभावित रहा है। कॉस्मेटिक बिक्री ने अपने संपूर्ण उत्पादों में एक निश्चित मात्रा बनाए रखी है। पुरुषों और महिलाओं में लगातार बढ़ रहे उपयोग की वजह से बिक्री में बढ़ोतरी हो रही है। व्यक्तिगत देखभाल उत्पाद बनाने वाली कंपनियां अपने उत्पादों को प्रतिस्पर्धी कीमतों पर ऑनलाइन उपलब्ध करा रही हैं। ग्राहक उन सामानों को खरीदने के लिए इच्छुक रहते हैं, जो ऑनलाइन रिटेलिंग के माध्यम से सीधे उनके पास आ सकते हैं। कई ग्राहक कॉस्मेटिक उत्पादों के पर्यावरणीय प्रभाव को लेकर चिंता जाहिर करते हैं। जिसकी वजह से निर्माता अपने उत्पादों को जैविक और टिकाऊ के रूप में विज्ञापित करके अपने संभावित उपभोक्ताओं को लुभाते हैं। निर्माता अपने उत्पादों को बढ़ावा देने और इसका लाभ उठाने के लिए इन सभी कारकों का ध्यान रखते हैं। भारत में मौजूदा बधाई देने वाले 95 प्रतिशत लोग नहीं जानते कि मिस वल्र्ड प्रतियोगिता कब से, किसने और क्यूँ शुरू की ? साथ ही मौजूदा व्यवस्था में इसे कौन चला रहा है और क्यों? यहाँ तक की हम अनभिज्ञ हैं कि मिस यूनिवर्श और मिस वल्र्ड दो अलग-अलग चीज हैं, जो अलग कंपनी संचालित करती हैं। मिस वल्र्ड की शुरुआत एरिक मोरली नामक इन्सान ने की थी। जिसका शुरूआती नाम बिकनी काॅटेस्ट था और उद्देश्य था एक ऐसी प्रतियोगिता जहां से एरिक अपनी बिकनी बिजनस को बढ़ा सके और ज्यादा से ज्यादा बिकिनी और महिला शरीर को बाजारवाद की खातिर इस्तमाल में ला सकें। सन् 2001 में उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा जुलिया मोरली इस व्यापार को चला रही है। अब इनका उद्देश्य सिर्फ बिकनी नहीं रहा बल्कि दुनिया भर की बिना इस्तेमाल की चीजों को बेचना हो गया है। दुनिया भर के विवादों के बाद भी आज भी ये सिलसिला बदस्तूर जारी है। जहान भर की हर बड़ी कंपनी इसमें साझेदार हैं। जहां जरूरतों के हिसाब से सामान नहीं बनाया जाता, बल्कि सामान के हिसाब से जरूरतें पैदा की जाती हैं। इस खेल में इस तरह की प्रतियोगिताएं अहम् भूमिका निभाती हैं।
बहरहाल अब बात करते हैं दूसरी यानि मिस यूनिवर्श सौंदर्य प्रतियोगिता पर। इसकी शुरुआत की गई थी पैसिफिक मिल्स नाम की एक कपड़ा मिल ने, ताकि वो अपने उत्पाद बेचने के लिए बेहतर दिखने वाली लड़कियां छांट सकें। बाद में अलग-अलग हाथों से होती हुई, इस वक्त अमेरिका के महामहिम श्रीमान् डोनाल्ड ट्रम्प के पास इसका मालिकाना हक है। एक प्राइवेट कंपनी इसे संचालित करती है व सहयोग देती है। यानी की दोनों ही प्रतियोगिता निजी सम्पति मात्र है। जिनका संचालन एक परिवार मात्र करता है। इसमें काफी सारी शर्त रखी गई हैं। जिनमें एक शर्त चरित्र है। अब चरित्र में ये बिकिनी उत्पाद वाले किस चीज को रखते हैं ये बात तो वो ही जाने। बाकि रजनीगंधा पान मसाला से लेकर अल्ट्रा बेवरेज तक का पैसा इसमें लगा है।
अब शुरू करते हैं मुद्दे की बात, सन् 1994 में एक साथ मिस वल्र्ड और मिस यूनिवर्स पर कब्जा किया दो भारतीय सुन्दरियों ने, ऐश्वर्या राय और सुष्मिता सेन ने। वर्ष 1994 से पहले जहाँ हमारे बाथरूम में मात्र 2 से 3 बोतल होती थी, एक साधारण शैम्पू, एक साधारण तेल और एक कोई इत्र अब इन्हीं बोतलों की संख्या लगभग 15 हो चुकी है, क्योंकि ऐश्वर्या और सुष्मिता जैसा बनना है तो आपको लक्स से नहाना जरुरी है, बालो में डव शैम्पू लगाना जरुरी है, शैम्पू के बाद एक कंडीशनर तो बेहद जरुरी है, हाथ धोने का साबुन अलग होगा, शरीर का साबुन अलग और मुंह का साबुन अलग, मुंह पर साबुन से काम नहीं चलेगा सुष्मिता जैसा मुंह चाहिए तो एक्स वाई जेड कंपनी के फेशवाश से मुंह धोना जरुरी है, बालों में सिर्फ कंडीशनर और शैम्पू से काम नहीं चलेगा। तेल के साथ सीरम भी लगाना पड़ेगा। ये सब हमें किसने बताया और किसने मनवाया ? हमारे समाज की दो सुन्दरियों ने, क्योंकि हम सब इनके जैसा बनना चाहते हैं। तो हमे वो ही करना पड़ेगा जो ये करती हैं। दूसरों जैसा बनने की चाहत पैदा करना और फिर उनका अनुसरण करवाना ही बाजार को ताकत देता है। कब लाॅरियल, पी एण्ड जी, यूनीलिवर, लैक्मे व गोगरेज हमारे बाथरूम में घुस गए पता ही नहीं चला। आज हमारी व्यय योग्य आय का सबसे बड़ा हिस्सा यही खा रहे हैं। जबकि हम अहंकार और दम्भ के कारण पूंजीवाद का ये स्वरूप देखना ही नहीं चाहते। या देखकर अनदेखा कर देते हैं।
सुन्दरता से आकर्षित होना स्वभाविक ही है, लेकिन सुन्दरता है क्या? कौन सुन्दर है कौन सुन्दर नहीं, इसका उत्तर एक ही है, जो पसंद आये या आकर्षित करे वहीं सुन्दर है, हर व्यक्ति के लिये सुन्दरता के मायने अलग अलग है, और सुन्दरता के पैमाने समय-समय पर बदलते ही रहते हैं, एक ही व्यक्ति जो बहुत सुन्दर लगता हो रोज देखने पर सुन्दरता की मात्रा कम लगने लगती है, और एक बदसूरत लगने वाला शख्स कुछ समय बाद कम बदसूरत लगने लगता है। यह मानव मन की चंचलता ही है जो किसी को खूबसूरत और किसी को बदसूरत करार देती है। सुन्दरता के सिद्धांत पर विज्ञापन को चालीस-पचास साल से भी ज्यादा एक ही थीम पर लंबे समय तक हिट है । लॅक्स साबुन जो हमेशा “फिल्मी सितारों का सौंदर्य साबुन” के नाम पर अग्रणी रहा और आज भी है. कामिनी कौशल, निरुपा रॉय, मीना कुमारी, जारीना बहाव, मौसमी चटर्जी, रेखा, राखी, हेमा मालिनी, जयाप्रदा, श्रीदेवी, काजोल, ऐश्वर्या, करीना, कटरीना, सभी ने लॅक्स के ब्रांड अंबेसडर का काम किया है और सबको सुन्दर दिखने का सपना दिखाया है, पुरुषों में सिर्फ शाहरुख खान को ही यह गौरव हासिल हुआ वो भी बहुत थोड़े समय के लिये। क्या पुरुष सुन्दर नहीं होते? वास्तव में सुन्दरता पुरुष या स्त्री होने की मोहताज नहीं होती, फिर भी नारी और पुरुष में सुन्दरता के मापदंड अलग अलग हैं। सुन्दर तो पशु पक्षी, वनस्पति और बेजान वस्तुएं भी होती हैं। लेकिन सबसे अधिक सराहा गया नारी की सुन्दरता को, हर कवि ने उसे महत्ता दी चित्तोड़ की पद्मिनी के बारे में कहा गया कि वर्णन करने से उसकी सुन्दरता कम हो जायेगी. “पाकीजा’ में कहा गया ”तुम्हारे पाँव देखे, इन्हें जमीन पे ना रखना मैले हो जायेंगे” कभी चंद्रमुखी कहा, कभी गजगामिनी, कभी स्वप्न सुन्दरी कहा तो कभी चंचल हिरनी, इतने विशेषण मिले कि सुन्दरता की परिभाषा उसमें दबी रह गयी।
हमारा साहित्य भी इसको बहुत बढ़ावा देता रहा है जहां “चाँद सा चेहरा”, “झील सी आँखें”, “सुराहीदार गर्दन”, “सुतवां जिस्म” और ऐसे ही न जाने कितने प्रतीक, उपमाएं, उपमान या चाहतें रही हैं। कहीं “काम कमान भंवे” हैं, कहीं “कजरारे नैना”। “गुलाब की पखुंड़ियों से होंठ” हैं। कहीं वो मोर जैसी है, कहीं चपल-चंचल हिरनी सी। कल्पना से लेकर समाज के धरातल पर देह की सुंदरता को लेकर ऐसे न जानें कितने मानदंड रचे गए। ऐसी कितनी बातें हैं कि अगर लड़कियां उनके ऊपर खरी नहीं उतरतीं तो उनका जीना ही बेकार समझा जाता है, पैदा होना ही पाप कहा जाता है। इस तरह एक आम भारतीय लड़की हीन भावना का शिकार हो जाती है। और इस हीन भावना का फायदा उठाता है बाजार। सुंदरता को लेकर बाजार शोषण के लिए नित नये पैमाने गढ़ता और प्रचारित करता है। सौंदर्य प्रसाधन बेचने वाली कंपनियां रातों-रात मालामाल हुई जाती हैं। मिस इंडिया, मिस वल्र्ड जैसी प्रतियोगिताएं इसी कारोबार का हिस्सा हैं। इसके अलावा धर्म ने भी बड़े छलावे रचे हैं। जहां स्त्री देवी है या दासी। अपने नये जमाने में तो और भी दबाव हैं। घर भी, बाहर भी सब अच्छी तरह निबाहना है।
अकबर इलाहाबादी का एक शेर है-
इलाही कैसी कैसी सूरतें तू ने बनाई हैं,
कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के काबिल है,
कहते हैं खूबसूरती का कोई पैमाना नहीं होता, नजर-नजर का फर्क होता है। लेकिन बात जब शारीरिक सुंदरता की हो तो ये कहा जा सकता है कि खूबसूरती को मापा जा सकता है, और इस माप का पैमाना खुद वैज्ञानिकों के पास है। यानी अगर विज्ञान किसी चीज को खूबसूरत कहता है तो उसके पीछे वैज्ञानिक कारण होता है। फिलहाल चर्चा हो रही है सुपर मॉडल बेला हदीद की जिन्हें साइंस के मुताबिक दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला घोषित किया गया है। एक रिसर्च के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि बेला का चेहरा ही परफेक्ट फेस है। शारीरिक खूबसूरती को मापने वाला मानक यानी गोल्डेन रेशियो आॅफ ब्यूटी फी के मानकों के आधार पर, 23 साल की बेला हदीद का चेहरा मानक से 94.35 प्रतिशत तक मिलता है। बेला की आंखें, भौंह, नाक, होंठ, ठुड्डी, जबड़े और चेहरे का आकार मापा गया जो प्राचीन यूनानियों के मुताबिक सुंदरता के सबसे करीब है।
सुंदरता की इस रेस में सबसे ऊपर अगर बेला हदीद हैं तो दूसरे नंबर पर रही हैं 38 साल की सिंगर बेयोन्स जिनका चेहरा सुंदरता के मानक से 92.44 प्रतिशत मिलता है. और तीसरे स्थान पर रहीं 26 साल की एक्ट्रेस अम्बर हियर्ड जिनका चेहरा 91.85 प्रतिशत तक सुंदरता के करीब है। ये नतीजे कॉस्मेटिक सर्जन डॉ जूलियन डी सिल्वा ने नई कम्प्युटराईज मैपिंग टेक्निक्स का उपयोग कर निकाले हैं. तो पहले इस पैमाने को जान लेते हैं जो खूबसूरती की परिभाषा तय करता है। गोल्डन रेशियो यूरोप से आया है जहां के कलाकारों और वास्तुकारों ने एक समीकरण का उपयोग किया- जिसे गोल्डन रेशियो कहा जाता है- यानी अपने किसी भी मास्टरपीस को बनाने के लिए इसी मानक का इस्तेमाल किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इसे समझाने के लिए इसका गणितीय सूत्र दिया है। किसी के चेहरे की लंबाई और चैड़ाई को मापकर नतीजा निकाला जाता है। गोल्डेन रेशियो के अनुसार आदर्श परिणाम लगभग 1.6 है। माथे की हेयरलाइन से आंखों के बीच की जगह का माप लिया जाता है, आंखों के बीच की जगह से नाक के नीचे तक मापा जाता है और नाक से लेकर ठुड्डी तक के नाप लिए जाते हैं। अगर ये माप एकसमान हों तो व्यक्ति को सुंदर माना जाता है। यानी चेहरे की समरूपता और अनुपात को तवज्जो दी जाती है। गोल्डन रेशियो के अनुसार कान की लंबाई नाक की लंबाई के बराबर होनी चाहिए, और आंखों की चैड़ाई दोनों आंखों के बीच की दूरी के बराबर होनी चाहिए. अगर किसी कलाकृति की बात की जाए तो सुंदरता के ये पैमाने समझ में आते हैं. एक कलाकार मूर्ति को गढ़ते वक्त उन्हीं मानकों का ध्यान रखता है। लेकिन किसी इंसान की सुंदरता तो तभी मायने रखती है जब वो प्राकृतिक रूप में इसी मानक के हिसाब से हो। यानी बेला हदीद कितनी ही खूबसूरत क्यों न हों, लेकिन ये परफेक्ट खूबसूरती उन्होंने कॉस्मेटिक सर्जरी की बदौलत ही पाई है।
मॉडल या एक्ट्रेस हमेशा अपने लुक्स को बेहतर करने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करवाते रहते हैं। लेकिन कभी इस बात को नहीं मानते कि उन्होंने ऐसा कुछ करवाया है। बेला भी हमेशा इस बात को नकारती आई हैं कि उन्होंने अपने चेहरे पर किसी तरह की कोई सर्जरी करवाई है। लेकिन समय-समय पर उनके कई कॉस्मेटिक डॉक्टर्स इस बात की तरफ इशारा करते आए हैं कि बेला के चेहरे में पहले से काफी बदलाव दिखाई देते हैं जो बिना सर्जरी के नहीं हो सकते। अगर परफेक्ट सुंदरता के पीछे ये कॉस्मेटिक सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी ही है तो फिर बेला को दुनिया की सबसे ज्यादा खूबसूरत महिला कैसे कहा जा सकता है। बात शारीरिक सुंदरता की है और मानक भी माप के आधार पर ही हैं तो फिर सुंदर बनने के लिए सिर्फ पैसे की ही जरूरत समझिए। क्योंकि ये सुंदरता तो पैसा देकर पाई जा सकती है। कॉस्मेटिक सर्जन डॉ जूलियन डी सिल्वा ने जिस भी आधार पर खूबसूरती मापी है, उनका उद्देश्य भी अपनी दुकान चलाना ही है।
इसलिए सौंदर्य प्रतियोगिताओं में सबसे खूबसूरत महिला को चुनना हो या फिर वैज्ञानिक तरीके से खूबसूरती परखनी हो, ये खूबसूरती परखना ही बहुत अजीब है। क्योंकि शारीरिक सौंदर्य क्षणभंगुर है, कुछ समय बाद बेला को दूसरे नंबर पर रखने वाली कोई और महिला नंबर 1 हो जाएगी जो परफैक्शन के और ज्यादा करीब होगी। इसलिए मैं तो इस बात पर हमेशा कायम रहूंगी कि सुंदरता का कोई पैमाना नहीं है, सिर्फ नजर-नजर का फर्क है। और मेरी नजर में हर महिला खूबसूरत हैक्लियोपेट्रा से लेकर नूरजहाँ और मधुबाला से लेकर करिश्मा कपूर, सुंदरता को लोगों ने अलग-अलग ढंग से देखा है, सराहा है। अलग-अलग देशों और संस्कृतियों में सुंदरता के मापदंड भी अलग-अलग हैं। कहीं गोरा रंग और काले बाल सुंदरता की निशानी माने जाते हैं तो कहीं काला रंग हसीन समझा जाता है।
मॉडेल नाओमी कैप्मबेल की त्वचा के रंग से कौन प्रभावित नहीं होगा। मिस यूनिवर्स या मिस वल्र्ड प्रतियोगिता में विजयी रहने वाली युवती जजों की निगाह में शायद सबसे सुंदर महिला हों लेकिन हो सकता है कि किसी और के लिए सबसे खूबसूरत औरत कोई और ही हो।
लेकिन क्या सुंदरता की परिभाषा भी बदलती रहती है? सौंदर्य विशेषज्ञ रचना शर्मा का कहना है, इस समय एंजेलीना जोली जैसा चैड़ा जबड़ा सुदंरता की पहचान समझा जा रहा है। कई महिलाएँ तो कॉस्मेटिक सर्जरी करा कर चेहरे को नया रूप दे रही हैं।.सौंदर्य प्रसाधनों के इस्तेमाल से सुंदर दिखने की परंपरा सदियों पुरानी है। लेकिन यह भी सच है कि किसी देश में जो सुंदर है कहीं और वह असुंदर। भारतीय अभिनेत्रियों में डिंपल को आमतौर पर सुंदर ही माना जाता है जैसे दक्षिण एशियाई देशों में माथा या पेशानी या ललाट की कवियों ने चाँद से तुलना की है जबकि अन्य किसी देश में शायद ही माथे पर इतना ध्यान दिया गया हो। पश्चिम में गालों की उभरी हुई हड्डी या चीकबोन सुंदरता का मापदंड है जबकि पूर्वी देशों में नहीं। इसी तरह होंठ कैसे हों इस पर भी अलग-अलग राय हैं। दादी-नानी के जमाने में चैड़े या मोटे होठों वाली महिला को कोई सुंदर नहीं मानता था, जबकि पश्चिमी देशों में सोफिया लॉरेन या जूलिया रॉबर्ट्स जैसे भरे-भरे होंठ अन्य महिलाओं के लिए ईष्र्या का विषय हैं। कहीं काली आँखें सुंदर समझी जाती हैं तो कहीं नीली। कहीं काले बालों पर शेर लिखे गए हैं तो कहीं ब्लॉंड यानी सफेद बालों वाली महिला आकर्षित करने वाली समझी जाती है। जूलिया रॉबर्ट्स की सुंदरता के तो सभी कायल हैं। भारत के भी कुछ इलाकों में छरहरे बदन वाली लड़की सुंदर है तो दक्षिण भारत में भरे-भरे शरीर वाली। यानी कुल मिला कर यह कि सुंदरता क्या है इसकी व्याख्या बहुत मुश्किल है। एक कहावत है न कि लैला को देखना है तो मजनू की निगाह से देखिए। आधुनिक सौंदर्य प्रसाधनों ने वैसे हर लड़की को इतनी सुविधा तो दे ही दी है कि वह अपने रूप को और निखार सके। लेकिन जैसाकि रचना शर्मा का कहना है- ‘स्वस्थ शरीर, आँखों और बालों में चमक और बेदाग त्वचा। यही है सुंदरता की निशानी। थोड़ी देखभाल से यह हर कोई हासिल कर सकता है।’
आज हम जिस युग में जी रहे हैं वो एक ऐसा वैज्ञानिक और औद्योगिक युग है जहाँ भौतिकवाद अपने चरम पर है। इस युग में हर चीज का कृत्रिम उत्पादन हो रहा है। ये वो दौर है जिसमें ईश्वर की बनाई दुनिया से इतर मनुष्य ने एक नई दुनिया का ही अविष्कार कर लिया है। यानी कि वर्चुअल वल्र्ड। इतना ही नहीं बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशल इनटेलीजेंस ने भी इस युग में अपनी क्रांतिकारी आमद दर्ज कर दी है। ऐसे दौर में सौंदर्य कैसे अछूता रह सकता था। इसलिए आज सुंदरता एक नैसर्गिक गुण नहीं रह गया है अपितु यह करोड़ों के कॉस्मेटिक उद्योग के बाजरवाद का परिणाम बन चुका है। कॉस्मेटिक्स और कॉस्मेटिक सर्जरी ने सौंदर्य की प्राकृतिक दुनिया पर कब्जा कर लिया है। आज नारी को यह बताया जा रहा है कि सुंदरता वो नहीं है जो उसके पास है। बल्कि आज सुदंरता के नए मापदंड हैं और जो स्त्री इन पर खरी नहीं उतरती वो सुंदर नहीं है।
परिणामस्वरूप आज की नारी इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा तय किए गए खूबसूरती के मानकों पर खरा उतरने के लिए अपने शरीर के साथ भूखा रहने से लेकर और न जाने कितने अत्याचार कर रही है। यह किसी से छुपा नहीं है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि खूबसूरत दिखने के लिए महिलाएं उन ब्यूटी पार्लर्स में जाती हैं जिनका संचालन करने वाली महिलाओं का सुंदरता अथवा सौंदर्य के इन मानकों से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं होता। दरअसल आज हम भूल गए हैं कि सुंदरता चेहरे का नहीं दिल का गुण है। सुंदरता वो नहीं होती जो आईने में दिखाई देती है बल्कि वो होती है जो महसूस की जाती है। हम भूल गए हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर का ही हस्त्ताक्षर है और इस शरीर के साथ साथ हमारा यह जीवन हमें उस प्रभु का दिया एक अनमोल उपहार। लेकिन आज सुंदरता में पूर्णता की चाह में स्त्री भूल गई है कि अधूरेपन और अव्यवस्था में भी एक खूबसूरती होती है। वो भूल गई है कि ईश्वर की बनाई हर चीज खूबसूरत होती है। कली की सुंदरता फूल से कम नहीं होती और बागीचे की खूबसूरती वन से अधिक नहीं होती। सूर्योदय की अपनी खूबसूरती है तो सूर्यास्त की अपनी। पहाड़ों की अपनी सुंदरता है तो नदियों और समुद्र की अपनी। अगर हमें मोर अपनी ओर आकर्षित करता है तो कोयल भी। वस्तुतः खूबसूरती तो प्रकृति की हर वस्तु में होती है लेकिन दुर्भाग्यवश हर किसी को दिखाई नहीं देती। कहते हैं कि सुंदरता देखने वाले की आँखों में होती है। इसलिए जिस दिन स्त्री खुद को खुद की नजरों से देखेगी दुनिया की नहीं उस दिन उसकी सौंदर्य की परिभाषा भी बदल जाएगी। वो समझ जाएगी कि सुंदर तो ईश्वर की बनाई हर कृति होती है।
विमल राजस्थानी की एक कविता है-
‘विद्या-बुद्धि-ज्ञान-धन-दौलत
तेरे पास विपुल बहुतेरे
लेकिन परम पुरूष तो केवल
मन की सुन्दरता को हेरे
अजर-अमर मन की सुन्दरता
बाकी सब कुछ तो नश्वर है
मन सुन्दर तो सब सुन्दर है’
लेखक लोक सभा सचिवालय, संसद भवन, नई दिल्ली के कार्यकारी अधिकारी हैं।