People are just living life in the mobile era, in a dilemma: Payal Laxmi Soni

मोबाइल युग, कश्मकश में जिंदगी बस जीये जा रहे हैं लोग : पायल लक्ष्मी सोनी


आलेख


समय बदल चुका है और हमने समय के साथ चलना सीख भी लिया है। समय के साथ बहुत से बदलावों को अपनाया और बहुत सी आदतों को छोड़ दिया गया है, फिर भी शायद हम समझ नहीं पाए कि क्या सही है और क्या गलत। जिसे छोड़ दिया गया वह सही था या फिर जिसे अपना लिया गया वह गलत है? कश्मकश में जिंदगी बस जीये जा रहे हैं लोग। आज के समय में चालीस की उम्र वाले लोग कहते हैं कि हमारा जमाना अच्छा था उनका इशारा नब्बे की दशक की ओर है। आज के जमाने के युवा कहते हैं कि आज का जमाना टेक्नोलॉजी का है। समय के साथ चलना अच्छा है परंतु उसमें आधुनिकता और महत्वपूर्ण डिवाइस मोबाइल का तड़का लगना जरूरी है। मोबाइल के बिना अब जिंदगी थमी सी लगती है, लोग बेडरूम से लेकर बाथरूम तक मोबाइल लेकर जाने लगे हैं पहले बाथरूम में लोग अखबार ले जाया करते थे, वह कहते हैं ना टेक्नोलॉजी का हर जगह विस्तारीकरण का हो जाना। आज एक औरत भी अपने बच्चे को उतने करीब नहीं सुला पाती जितना नजदीक उसका मोबाइल होता है। हाथ बच्चे का भले छूट जाए पर मोबाइल हाथ से कभी छूटेगा नहीं।
मोबाइल से जुड़े किस्से कहानियां,लेख तो बहुत से लिखे गए होंगे और लिखे जा भी रहे हैं, कहीं मोबाइल का बखान हो रहा है तो कहीं आलोचना। चाइना में तो मोबाइल की लत छुड़वाने के लिए रिहैबिलिटेशन सेंटर तक चलाया जा रहा है। जिस प्रकार ड्रग्स और शराब के लिए नशा मुक्ति केंद्र चलाया जाता है।

हम इंसान पूरी तरह से एक इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के कन्ट्रोल में हो चुके हैं। एक क्षण के लिए भी मोबाइल डिस्चार्ज होता है तो जैसे लगता है सारा काम अभी ही करना है,अलग सी बेचैनी उत्पन्न हो जाती है और मन में ख्याल आने लगता है कि कहीं कोई फोन करता होगा। उस वक्त हम असल में अपनी वेल्यू की तलाश कर रहे होते है और जब फोन ऑन होता है और कोई भी मिस कॉल ना पाकर अपने अंदर एक संदेह प्रश्न खड़ा करता है कि मुझे तो कोई फोन ही नहीं करता। एक सज्जन से इस विषय पर चर्चा के दौरान बताया कि व्हाट्सएप पर इतने मैसेज आते हैं कि जैसे लगता है मैं किसी बड़े कंपनी का मालिक हूं पढ़ तो पाता नहीं, सारा डिलीट कर देता हूं, मुझे समझ में नहीं आता कि लोगों को इतना वक्त कैसे मिल जाता है? हमेशा मैसेज करते रहते हैं जबकि वह भी जानते हैं कि पढ़ता तो कोई नहीं और तो और परसों रात मेरे मोबाइल का रिचार्ज खत्म हो गया। सुबह रिचार्ज करवाना है यह सोच-सोच कर रात भर नींद नहीं लगी। यह बात समझ में नही आती कि इंटरनेट फ्री है या हम लोग? खैर मोबाइल को कोई कितना भी अपने से दूर रखने की कोशिश करे,व्यक्ति मोबाइल तक किसी ना किसी बहाने पहुंच ही जाता है।

लड़का और लड़की की सगाई होने पर नंबरों का आदान-प्रदान हो जाता है। अब शादी के दिन तक फोन पर लगे रहना,गुडमार्निंग, दोपहर भोजन के लिए फोन,फिर रात को। दूसरे का फोन हो तो रात 10:00 बजे से पहले तक मोबाइल पर बात खत्म और सागर फोन अपना हुआ तो रात 10 बजे से भोर के तीन चार बजे तक फोन में लगातार वार्ता। फिर आने वाले जन्मदिन में अगर कुछ भेंट किया जाता है तो वह है मोबाइल शायद ही किसी को जन्मदिन पर कुछ अलग भेंट करते हुए देखा जाता होगा।अब जहां दूसरे के मोबाइल पर कुछ मिनट बातें होती थी अब खुद के पास होने पर दिन भर फोन,व्हाट्सएप मैसेज, बात-बात पर प्रश्न उठाना कि अब कहां हो, क्या कर रहे हो? जबकि उन्हें यह सोचना चाहिए कि विवाह के बाद उस मोबाइल का क्या होगा जब लड़की पत्नी बन घर आ जायेगी तो बात करने के लिए भी समय नहीं होगा क्योंकि वहाँ भी मोबाइल ही होता है। धीरे-धीरे कुछ पल बाद मोबाइल बोझ लगने लगता है। फिर सिलसिला शुरु होता है दिन-भर इधर-उधर की फिजूल फोन पर बातें और नए-नए मिर्च मसालों की तलाश।

उससे मन ऊब गया तो व्हाट्सएप,फेसबुक और इससे भी मन भर गया तो रील्स बनाना शुरू। कुकर में दाल चढ़ा कर फोन में लग जाना जली दाल की महक पर सास का नाराज होना और मन मार कर जली दाल को भोजन के तौर पर सबको परोस देना। बदलाव की आशा तो हर कोई करता है पर ऐसा सम्भव नही लगता। बहुवें दिन भर फोन पर लगी है और बुजुर्ग सास इस अपेक्षा में बैठी है कि बहु आये और मुझसे थोड़ी देर बात करें।

पर अब ऐसा नसीब कहां? इस चक्कर में सास भी अब पड़ोस में बहुओं की बुराई करने नहीं जा पाती बल्कि बहुओं ने अब वह जिम्मा उठा लिया है और सास की बुराइयों के लिए उन्हें कही जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि मोबाइल उनका यह काम आसान कर देता है।

अब पुरुषों की बात करें तो समस्यायें तो यहां भी गंभीर हैं पर गंभीर लगती नहीं।महिलाओं का फोन उठाना नजर तो आता है पर काम करना दिखाई नहीं देता। खुद घंटों बैठकर रील देखना बुराई नही परन्तु स्त्री देखे तो गलत? सारे काम अब लेपटॉप की जगह मोबाइल द्वारा किया जा रहा है एक तरह से मोबाइल ने हर जगह सेंध मार ली है जैसे कैलकुलेटर, घड़ी, कैलेंडर, चिट्ठी, नोटबुक, कैमरा, टेप रिकॉर्डर, कैसेट्स, रेडियो सब पर अपना कब्जा जमा लिया है। मोबाइल का इस्तेमाल सही और सकारात्मक दिशा में हो तो सार्थक लगता है परंतु अधिकतर यह लोगों के दिनचर्या को काफी प्रभावित करता है। आज के युवा यदि बेरोजगारी की पोस्ट स्टेटस पर लगाने या फ़ेसबुक पर पोस्ट डालने, रील देखने के बजाए स्वरोजगार की ओर मुखर हो तो देश की अधिकतम समस्याओं का समाधान हो सकता है। आज मोबाइल के कारण ही अश्लील सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जा रही है, नए ट्रेंड को मेंटेन करने में युवा भटक भी रहे हैं। पब, पार्टी, ड्रग्स, अश्लीलता इत्यादि। समाज को खोखला कर भावी युवाओं को जड़ों से कमजोर कर रही है। इज़ी एवलेबल के कारण ऑनलाइन बाजार फल-फूल रहे है और लोकल दुकानदार ग्राहक रूपी भगवान का इंतज़ार कर रहे है अब उन्हें कैसे कोई बताए कि वह भगवान अब दर्शन नही देंगे।

समाज का बदलता स्वरूप यह दर्शाता है कि व्यक्ति पहले अपनी सुविधा के बारे में पहले सोचता हैं सामने वाले के विषय में ज़रा भी चिंतित नहीं होता। कमोबेश देखें तो मोबाइल पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। मोबाइल में जीवन को अधिक आसान बना दिया है और हर किसी तक पहुंचना सरल कर दिया है परंतु मन में उतनी ही दूरियों को पैदा करने का माध्यम है। जहाँ कोरोना काल ने मोबाइल के माध्यम से बेहतरीन प्रयोग किये गए चाहे शिक्षा के माध्यम से या वेबिनार द्वारा यह प्रयोग सराहनीय रहा। वहीं इसके दुष्परिणाम भी दिखे, जैसे बच्चों की आंखों पर प्रभाव पड़ना, मोबाइल की लत लगना, एवं एडल्ट सामग्री का उम्र से पहले ही अनायास ही उपलब्ध हो जाना। मोबाइल जहां आपसी संबंधों को जोड़ रहा है, वहीं पति-पत्नी के बीच ग्रहण लगा रहा है। मतलब मोबाइल को अगर सौतन कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। समय के साथ जीना चाहिए परंतु परंपराओं और अनुशासन की मजबूत रस्सी को पकड़े रखते हुए, तभी यह दुनिया भी बच पाएगी।


लेखिका ‘पायल लक्ष्मी सोनी’ वाराणसी की रहने वाली ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं।