सामयिक संस्मरणीय आलेख: कोरोनाकाल में एक सफर: प्रफुल्ल सिंह ‘बेचैन कलम’
‘‘कोरोनाकाल में एक सफर’’ में जीवन की दुश्वारियों व नवप्रकट असंतुलित संवेदनाओं पर अतिसरलता पूर्वक अतिसामयिक संस्मरणीय आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं साहित्यकार प्रफुल्ल सिंह ‘बेचैन कलम’
जीवन हमेशा एक-सा कहाँ रहता है। किसी न किसी वजह से इम्तिहान चलता रहता है। तो इस बार बारी कोरोना की थी। तैयारी के लिए वक्त था। फिर भी अचानक हुए घोषणा के कारण निम्न तबके में अफरा-तफरी का माहौल बना रहा। बड़ी समस्या ये रही कि समुचित जानकारी के अभाव में एक बड़ा जन सैलाब कई जगह उमड़ पड़ा। कुछ-कुछ अंतराल में। जिसे संभालना प्रशासन के लिए चुनौती रहा।
आजकल, विशेषतः मोबाइल हर किसी के पास होता है और चायनीज सेट के क्या कहने। सस्ते और ढ़ेर सारे फीचर के साथ उपलब्ध होता है। जिससे गरीबी रेखा से नीचे से और भी नीचे तबके के पास मोबाइल जरूर होता है। रोज के काम के बाद अधिकतर दिहाड़ी मजदूर वीडियोज और टिकटाॅक देखकर मन बहलाते हैं। फिर बारी आती है व्हाट्सएप की जो अधिकतर घर के हाल-समाचार के लिए होता है। इन सबमें सबसे बड़ी बात ये होती है कि भ्रामक प्रचार धड़ल्ले से होता है। जैसे कि ये मैसेज आप दस लोगों को भेज दो, आपकी शाम तक सारी मनोकामना पूरी हो जाएगी। इसका एक ज्वलंत उदाहरण देखने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। विगत महीने मुंबई में एक फेक खबर के कारण व्हाट्सएप से बिना सोचे-समझे फॉरवर्ड करते-करते हजारों की संख्या में मजदूर बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन पर जमा हो गए।
उससे भी बड़ा रोल टिकटाॅक निभाता है। कोई भी ट्रेंड हो, बस चलना चाहिए। गलत-सही, नैतिकत-अनैतिकत। कोरोना की वजह से जो हुआ वो हुआ। ताजा उदाहरण सुशांत सिंह राजपूत का देख लो। लोग सोच रहे, ठीक है, कोई गुस्सा निकाल रहा, कोई लिख रहा, कोई सपोर्ट कर रहा, सब ठीक है, पर आपने सुना.. मेरी जानकारी तक तीन लोगों ने आत्महत्या कर ली, सारे टीनएजर्स थे। उनके घरवालों ने कभी नहीं सोचा होगा कि इस तरह उनके भी घर का चिराग बुझ जाएगा।
भारत की अर्थव्यवस्था भी बहुत सुस्त पड़ गयी, आखिर, जिंदगी भी कब तक लॉकडाउन रहती। जीने के लिए भूख को शांत करना पड़ता है।. तो अब अनलॉक का पहला चरण शुरू हुआ। साथ में, कोरोना से बढ़ती हुई तेज रफ्तार भी। कोविड के मामले तेजी से महानगरों में अपने पैर पसारने लगे। मुंबई, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात… और भी कई शहर।
संक्रमित व्यक्ति की संख्या में अत्यधिक इजाफा हुआ। मृत्यु-दर कम है और अच्छी बात यह है कि ठीक होने वाले अधिक। जिस समय मैं लिख रहा हूं अब तक कोरोना संक्रमित की संख्या पाँच लाख से अधिक पहुंच चुकी है और जुलाई की भीषण गर्मी में भी हमारा भारत कोरोना के वल्र्ड रिकॉर्ड में टॉप फाइव में अपनी जगह बनाने जा रहा है। जिसमें अधिक योगदान हमारे शिक्षित वर्ग का है। पहले तो लॉकडाउन में जो बवाल हुआ सो हुआ। अनलॉक के बाद स्थिति बदतर होती जा रही है। सोशल डिस्टेंसिंग का नाम तो अब मजाक-सा हो गया है।
आजकल शुद्ध हिंदी भी बहुत कठिन हो गई है। बोलचाल की भाषा में न जाने कितने भाषाओं का तालमेल रहता है। खैर, बिल्डिंग के नीचे साथ वाली गली को पतले-पतले बाँसों से घेर दिया गया, बाहर के हालात देखकर लग रहा था कि कुछ दिन में ये क्षेत्र पूरी तरह से बाहरी दुनिया से काट दिया जायेगा। यहाँ दिन-प्रतिदिन कोरोना के मामलें बढ़ते ही जा रहे हैं। आज सुबह-सुबह लगभग साढ़े तीन बजे भाई से बात कर रहा था.. भैया यूएसए रहते हैं तो हमारे बात करने का कुछ ऐसा ही टाइमिंग होता है। यूएसए की हालत बहुत खराब हो चुकी है। भाई पूछ रहे थे कि पहले ये बताओ वहां पता कैसे चलता है कि फलां एरिया में कोरोना पेशेंट है? किस तरह से तुम्हारे तरफ काम हो रहा है? तबियत खराब होने पर हॉस्पिटल जाने पर ही या फिर घर-घर जाकर सर्वे किया जा रहा है? भाई के हिसाब से इंडिया ठीक से काम नहीं कर रहा.. अभी और भी हालात बिगड़ने वाले हैं।
आज दिन के लगभग साढ़े नौ बजे दो लोग आये और सीसीटीवी को पूछने लगे.. मुझे समझ नहीं आया। मैंने कहा- बात क्या हो गुई है.. पहले तो वो हिचकिचाए, फिर मैंने जरा सख्त लहजे में पूछा तो उन्होंने कहा साथ वाली गली में मर्डर हुआ है और वो लोग क्राइम ब्रांच से इन्वेस्टिगेशन के लिए आये हैं। इस बिल्डिंग की सामने वाली सीसीटीवी के फुटेज चेक करना चाहते हैं। मैंने कहा कि सीसीटीवी वाले मॉनिटरिंग रूम की चाभी 301 वाले अंकल के पास है। आप ऊपर जाकर देख लें। शाम को पापा जब घर आये तो बहुत डांट पड़ी। वो तो गनीमत है कि डबल डोर है वरना आज न जाने क्या होता। पापा कह रहे थे कि शर्मा जी को जब पूछा तो कोई आया ही नहीं था और बिल्डिंग के अधिकतर लोग अपने घर जा चुके हैं। संयोग से, हमलोग भी दूसरे ही दिन अपने गाँव जाने वाले थे। घर में मैं और मेरी मम्मी थी। पापा ने चाभी शर्मा अंकल को दे दी थी। कोरोना की आड़ में क्राइम भी बढ़ गया है।
अगले दिन हमलोग अपनी गाड़ी से ही अपने घर बिहार के लिए निकल गए। नोएडा तक तो कोरोना का खौफ नजर आ रहा था। उसके बाद जिंदगी रास्ते में जहाँ भी दिखी, शांत-सी लगी, बिहार बॉर्डर गोपालगंज क्रॉस करते समय वहां से थोड़ा आगे जाकर एक जर्जर पुल है जो अभी तक ठीक नहीं हुआ है। सिंगल रोड के कारण हमेशा वहां जाम लगा रहता है। अक्सर पुल पार करने में कई घंटा लग जाता है। बिहार घुसते ही टोल टैक्स वाले ने हरियाणा की गाड़ी का नम्बर देखते ही पूछा, कहाँ से आ रहे हैं? मैं डर गया, मुझे लगा कहीं पुलिस को कॉल कर हम सबको क्वारंटाइन तो नहीं करवाने वाला है। लेकिन, पापा ने पूछा क्या हुआ है। हमलोग बिहटा से आ रहे हैं। पापा के बात करने के तरीके से वो समझ गया कि हमलोग बिहार से ही हैं। उसने मुस्कुरा कर टोल टैक्स के पूरे पैसे न लेकर आधे पैसे ही लिया और वेलकम कहा।
अपने गाँव, अपने घर, पहुँच कर लग ही नहीं रहा था कि यहाँ कोरोना जैसी कोई बात भी है। जहाँ पूरी दुनिया परेशान है। लाखों लोग इस महामारी के चपेट में आ गए हैं। सैकड़ों की संख्या में लोग मर रहे हैं और, यहाँ जिंदगी सामान्य ढंग से चल रही है, लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं, खूब काम करते हैं, खाते हैं, और, चैन की नींद सोते हैं। चाचा जी बता रहे थे कि शुरुआत में यहाँ भी बहुत सख्ती से लॉकडाउन का पालन कराया गया था। अधिकतर लोग पुलिस वालों के डर से मास्क लगाते थे। बाहर से आये हुए लोगों को गाँव के बाहर ही मिडिल स्कूल या सामुदायिक भवन में ठहराया जाता था। उसमें से किसी को कोविड-19 के लक्षण 14 दिनों में अधिक गंभीर हो तभी अस्पताल में ले जाया जाता था और जैसे ही 1 जून से अनलॉक की घोषणा हुई उस दिन के बाद यहाँ जिंदगी नॉर्मल हो गई। दादाजी की तबियत भी अब ठीक है। अधिक समाचार के कारण और पूरी तरह से घर में बंद होने के कारण उनका बीपी लो हो गया था और एक दिन खाना खाते समय गिर गए थे। डॉक्टर ने सबसे पहले समाचार और अखबार से पहरेज बताया तथा घर में सबसे बातचित करने की सलाह दी। दूसरे शब्दों में कहें तो अधिक तनाव उनके लिए हानिकारक था।
रात में, खाना खाते समय चाची ने बताया कि हमारे बुआ के देवर की बेटी की शादी में जाने का सपरिवार निमंत्रण आया है… और, हमलोग शादी में क्या पहनेंगे? अभी ये हाईलाइट मुद्दा है।
लेखक लखनऊ, उत्तर प्रदेश में शोध प्रशिक्षक एवं साहित्यकार हैं।