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An original and unpublished ghazal.

ग़ज़ल: पीढ़ियाँ अब भी।


ग़ज़ल:


बचा लो गुज़रे समय की निशानियाँ अब भी
सबक इन्हीं से तो लेती हैं पीढ़ियाँ अब भी।

बची रही वहीं रिश्तों में गर्मियाँ अब भी
जहाँ पे प्रेम की खुलती हैं खिड़कियाँ अब भी।

हैं उनके सामने यूँ तो चुनौतियाँ अब भी
मगर डटी हुईं हैं पथ पे बेटियाँ अब भी।

फ़रेबियों की भले ही कमी नहीं लेकिन
उन्हीं के बीच ही दिखती हैं नेकियाँ अब भी।

हरेक क्षेत्र में लड़की शिखर पे मिलती है
मगर खुली नहीं पाँवों की बेड़ियाँ अब भी।

घुला हो सब्र का पानी जहाँ मुहब्बत में
वहीं पे खिलती हैं फूलों – सी यारियाँ अब भी।

उतर गए हैं समंदर के गहरे तल में मगर
मिली नहीं है हमें सुख की सीपियाँ अब भी।


डॉ. कविता विकास नोयडा, उत्तर प्रदेश