‘गोदान’ का सामाजिक विस्तार : विन्ध्यवासिनी मिश्रा
’गोदान’ का सामाजिक विस्तार
औपनिवेशिक भारत में तमाम आर्थिक सामाजिक शैक्षिक असमानताओं या यूँ कहें कि अनेक असंतुलनों के काल में महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद जी के लेखन की पराकाष्ठात्मक अभिवृद्धि के रूप में उद्धृत उपन्यास ’’गोदान’’ की सामाजिक उपादेयता एवं सार्थकता अत्यन्त व्यापक है। यह उपन्यास सामाजिक आर्दशों के बजाय समाज के यर्थाथ चित्रण का जीता-जागता प्रतिबिम्ब है। यह उस समय के ज्वलन्त समस्याओं के साथ-साथ समाधान परक संकेतों को आत्मसात करते हुए अपने पात्रों के माध्यम से बड़ी बेबाकी और निर्भयता के साथ जनमानस के पटल रखता है।
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यूं तो उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ 1909 से हो चुका था। उनकी पहली रचना ’’सरस्वती पत्रिका’’ के दिसम्बर अंक 1915 में ‘सौत’ नाम से प्रकाशित हुई और 1936 में अन्तिम रचना ‘गोदान’ प्रकाशित हुई।
इन बीस वर्षो की अवधि में उनकी रचनाओं में जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इनसे पहले हिन्दी में काल्पनिक यात्रा और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थीं। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में यर्थाथवाद की शुरूवात की। गोदान में व्यक्ति के जीवन को बेहद सहजता, सरलता व मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
पाठक को ऐसा प्रतीत होता है कि वह हमारे आस-पास का ही जीवन है। प्रेमचंद के उपन्यास न केवल हिन्दी उपन्यास साहित्य में बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में ’’मील के पत्थर’’ हैं। ’’गोदान’’ का हिन्दी साहित्य ही नहीं विश्व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें प्रेमचंद की साहित्य सम्बन्धित विचारधारा ’’आदर्शोन्मुख’’ यथार्थवाद से आलोचनात्मक यथार्थवाद तक की पूर्णता प्राप्त करती है। एक सामान्य किसान को पूरे उपन्यास का नायक बनाना भारतीय उपन्यास परम्परा की दिशा बदल देने जैसे था।
सामन्तवाद और पूँजीवाद के चक्र में फंसकर हुयी कथानायक होरी की मृत्यु पाठकों के जेहन को झकझोर कर रख देती है। किसान जीवन पर यर्थाथ वर्णन करते-करते उपन्यास के अंत तक आदर्श का दामन थाम लेते हैं। ’’गोदान का कारूणिक अन्त इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। प्रेमचंद ने हिन्दी उपन्यास को जो ऊँचाई प्रदान किया वह सभी परिवर्तित उपन्यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही।
यही कारण है कि इस उपन्यास में प्रेमचंद ने ’’सामाजिक परिवेश का सजीव व यथार्थ वर्णन किया है। यह किसान की क्रूरता का ज्वलन्त प्रतिबिम्बि है। उन्होंने ’’गोदान’’ में सामाजिक आदार्शो को छोड़कर यथार्थ चित्रण पर बल दिया है। यह उपन्यास लोगों के मनोरंजन का समाधान न होकर राष्ट्रीय सामाजिक चिन्तन के भाव से भर गया है। इसमें समाज के किसानों, मजदूरों की दुर्दशा को बड़ी ही कलात्मक कारीगरी से उभारा गया है। गोदान 1936 प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास है। अतः प्रेमचंद ने अपने अनुभवों के आधार पर इसे सबसे सशक्त बना दिया है।
राष्ट्र निर्माण की दिशा में समाज एवं व्यक्ति में हमेशा (परस्पर) अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है अर्थात व्यक्तियों का समूह समाज का निर्माता है वही व्यक्ति को सामाजिक बनाता है।
गोदान में दान प्रथा का मूल कथ्य है, किसान जीवन में आस्था का दामन पकड़कर विश्वास और श्रद्धा के साथ प्रत्येक दुःख को सहता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता है। होरी धनियाँ से कहता है कि ’जब दूसरे के पाव तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पावों को सहलाने में ही कुशलत है।’ 1
गोदान का मुख्य पात्र होरी गरीबी की त्रासद परिस्थिति का शिकार है। प्रेमचंद ने वस्त्राभाव को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है-होरी की मिर्जयी तार-तार हो चुकी थी जिसे पाँच साल पहले धनियाँ ने बनाया था। धनियाँ के साड़ी में भी कई पेबंद लगे हुए थे सोना की साड़ी सर से फटी हुई थी। रूपा के धोती में झालरें लटक रहीं थीं। 2
होरी के घर के पाँच सदस्य दिन-रात खेतों में परिश्रम करके भी दो वक्त की रोटी व लज्जा छुपाने का साधन नहीं जुटा पा रहे थे। महाजनों का कर्ज और सूद की चिंता होरी को जिन्दा खाये जा रही थी।
डाॅ0 काशीनाथ सिंह ने कहा है- होरी को मौत अनाशय नहीं मिलीती, बल्कि उसकी गाय सुन्दरी की तरह ही वह जैसे-Slow Porin का शिकार था। 3
प्रेमचंद ने अपनी कथा को कहीं भी अतिरंजित नहीं किया है न ही कथा कहीं वास्तविकता से दूर हुई है।
किसान होरी इस दशा का दोषी अपने भाग्य को मानता है, परन्तु उसका पुत्र गोबर उसकी बात से सहमत नही है। वह नयी पीढ़ी के युवक की भाँति इस बात का घोर विरोध करता है। उसने कहा कि ‘‘भगवान तो सबको बराबर बनाता है। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन बैठा है।’’ 4
वह यह भी मानता है कि गरीबों के शोषण का कारण उसकी रूढ़िवादिता और संगठन का अभाव है।
गोदान में दो कथाएं साथ-साथ चलती हैं। एक कथा ग्रामीण जीवन में कृषक से सम्बन्धित है तो दूसरी कथा शहरी/नगरी जीवन के उद्योगपतियों (खन्ना, मिर्जा, खुर्शीदा, मेहता, डाॅक्टर मालती आदि) से सम्बन्धित है।
धनियाँ के दोनों हाथ गोबर से भरे हुए थे। उपलें पाथ कर आयी थी। बोली! अरे कुछ रस पानी तो कर लो, ऐसी जल्दी क्या है। 5
’’होरी ने अपने झुरिर्यों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा-तुझे रस पानी की पड़ी है। मुझे यह चिन्ता है कि अबरे हो जायेगी तो मालिक से भेंट नहीं होगी। ’धनियाँ कुछ जलपान करके जाओगे तो कब न हरज होगा।’ तू जो बात नही झमझती, उसमें टांग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे अपना काम कर। यह मिलते जुलते रहने का ही परसाद है कि जान अभी तक बची हुई है नहीं तो पता नहीं चलता कि किधर चले गये। गांव में इतने आदमी तो हैं किस पर बेदखली नहीं आयी जब दूसरे के पावों तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उस पाव को सहलाने में ही कुशलता है। 6
धनिया को इतनी समझ कहां उसने कहा हमन जमीदार के खेत जोते है, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें उसके तलवें क्यों सहलाएं।
बीस साल के वैवाहिक जीवन के अनुभव से यह जान गई थी कि चाहे जितना कतर व्योंत कर लो तन पेट काट लो एक-एक कौड़ी दाँत से पकड़ो, मगर बेबाक होना मुश्किल है। स्त्री-पुरूष में आए दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी 6 सन्तानों में तीन अभी जिन्दा हैं। सोना और रूपा पुत्री तथा पुत्र गोबर।
धनिया का मन आज भी कचोटता है कि पैसे के अभाव में उसकी संतान मर गई नहीं तो जीवित रहती, उसकी उम्र ही क्या थी, छत्तीसवां ही तो था उमर ढ़ल गई चेहरे पर छुर्रियाँ पड़ गयीं थी, गेंहुआ रंग सावंला हो गई थी, पेट में चिंता के कारण कम सूझने लगा था।
उसे कभी-जीवन का सुख नहीं मिला। इस चिरस्थाई जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट भर रोटियाँ भी न मिलें उसके लिए इतनी खुशामद क्यों? इन परिस्थितियों से उसका मन लगातार विद्रोह करता था। दो चार घुड़की खाने के बाद उसे यथार्थ का ज्ञान होता है। उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूता, पगड़ी और तम्बाकू का बटुआ लाकर पटक देती है। ‘‘होरी ने आँख तरेर कर कहा क्या ससुराल जाना है, जो पाचों पोषाक लायी हो। ससुराल में कोई जवान साली-सरहज नहीं बैठी हैं। जिसे जाकर दिखाऊँ। होरी के गहरे पिचके हुए चेहरे पर मुस्कुराहट की मृदुलता झलक पड़ती है। ऐसे ही बड़ी सजीले जवान हो जो साली सरहजें तुम्हें देखकर रीझ जायेंगी। फटी मिरजई पहनकर कहता है मर्द तो साठे पर पाठे होते हैं।’’
धनिया जाकर शीशे में मुँह देखने लगी न दूध, दही, घी न अंजन, तुम्हारी दशा देखकर तो मैं मरी जा रही हूँ कि बुढ़ापा कैसे कटेगी। किसके द्वारा लकड़ी सम्भालते हुए बोला साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पायेगी धनिया। इसके पहले ही चल दूंगा धनिया। तिरस्कार करते हुए धनियाँ कहती है- अच्छा रहने दो, अशुभ मुँह से न निकालो तुमसे तो कुछ भी कहो तो लगते हो कोसने।
होरी कंधे पर लाठी रखकर घर से निकला तो धनियाँ द्वार पर खड़ी देर तक उसे देखती रही। होरी को निराशा भरे शब्दों को सुनकर उसका हृदय आतंकमय कम्पन से भर गया। वह सम्पूर्ण व्रत व तीज से अपने पति को अभय दान देने लगी।
होरी कदम बढ़ाये चला जाता था पगदण्डी के दोनों ओर ऊख देखकर मन प्रसन्न हो रहा था कि गांव मे बरखा हो गई और डांडी सुभीते से रहें तो गाय जरूर लेगा। वह पछाई गाय लेगा उसकी खूब सेवा करेगा, कुछ नहीं तो चार-पांच सेर दूध देगी।
वह गोबर दूध के लिए तरस कर रह जाता है। इस उमर में नहीं खाया पिया तो किस उमर में खायेगा पियेगा। उसकी गऊ की लालसा चीरकाल तक संचित चली आ रही थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न व सबसे बड़ी साध थी। नंहे से हृदय में विशाल आकाक्षाएं कैसे समाता। किसान उसे देखकर राम-राम करते और सम्मान भाव से चिलम पीने का निमंत्रण देते ये सब मालिकों से मिलते-जुलते रहने का ही प्रसाद है। खेतों के नीचे के पगदण्डी छोड़कर एक खटोली में आ गये। जेठ के समय कुछ हरियाली नजर आती थी, आस-पास की गायें यहां चरने आया करती थीं, उस समय भी यहाँ के हवा में कुछ ताजगी व ठण्डक है। कई किसान इस गढ्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे एवं अच्छी रकम दे रहे थे, पर ईश्वर भला करे रायसाहब का कि उन्होंने साफ कह दिया कि यह जमीन जानवरों के चराई के लिए छोड़ दी है। कोई स्वार्थी जमींदार होता तो कहता गाय जाए भाड़ में हमें रूपये मिलते हैं क्यों छोड़ेंघ् पर रायसाहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं जो मालिक प्रजा को न पाले वह भी कोई आदमी है। सहसा उसने देखा भोला अपनी गाये लिए इसी तरफ चल आ रहा है। वह इसी गांव के मिले हुए पूरखे का ग्वाला था। दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। इस प्रकार सारांश में लम्बी कहानी है जो कहानी का अतः छोटे समूह में लिखा गया है- जब होरी की मृत्यु हो गई: कई आवाजे आयीं – हाँ, गोदान करा दो, अब यही समय है। धनियाँ यन्त्र की भाँति उठी आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठण्डे हाथ पर रखकर बोली ‘यही पैसे हैं, यहीं इनका गोदान है।’ तथा वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी।
गांव में शहर की अपेक्षा नैतिक मान्यता बिल्कुल भिन्न है। मालती के माध्यम से ’गोदान’ में प्रेमचंद यह दर्शाते हैं कि मालती कितनी स्वच्छंद रूढ़िवादिता को तोड़ने वाली आधुनिक नारी है।
अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रेमचंद ने नगर और ग्राम में विभेद को प्रमाणित रूप में प्रस्तुत किया है।
अपने अन्तिम उपन्यास गोदान में वे आदर्शो से मुक्त नहीं हो सके, पर गोदान में सामान्य जीवन धारा की अत्यंत सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
प्रेमचंद जी ने सामाजिक परिधि के भीतर पनपने वाले कार्य, व्यापारों के सजीव चित्रण करने में अपने कलम की कारीगरी से यथार्थ का अवलंबन कर सृजन किया है, परन्तु उन्होंने आदर्शवाद को ओझल नहीं होने दिया है। अपने उपन्यासों में समाज का सम्पूर्ण चित्रांकन कर दिया है।
किसान जीवन की दारूण दशा का वर्णन प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक चलता रहा है। क्योंकि सर्वाधिक जनता किसान जीवन से जुड़ी हुई है। सर्वाधिक समस्याग्रस्त किसान ही है। किसान के संदर्भ में ’सुमित्रतानंदन पंत ने भी लिखा है-
’’अंधकार की गुहन सरीखी
उन आखों से डरता है मन
भरा दूर तक उनमें दारूण
दैन्य दुख का नीरव वेदन।’’
गोदान किसान जीवन की त्रासदी है, इसकी अन्तिम घटना दर्दनाक है जो असफलता के कारण आश्रमयी हो गयी है। गाय रखने की इच्छा रखते हुए भी नहीं पाल सका। धनिया से कहा गया की गोदान दिया जाय। जो इच्छा व लालसा जीते जी नहीं पूरी हुई उसको मरने के बाद पूरा कर दो तो मन को शक्ति मिलेगी।
निष्कर्ष
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में नारी जीवन के हर पहलू को चित्रित किया है। उनके जीवन की प्रत्येक समस्या उनके चरित्र का प्रत्येक पक्ष, उसमें विद्यमान साहस, लाग, करूण, दृढ़ता एवं संयम जैसे उच्च मानवीय गुणों के सार्थ इंष्र्या, द्वेष, आभूषण प्रियता, रुढ़ीवादिता, धर्मभीरूता व अधंविश्वास जैसी – दुर्बलताओं को भी चित्रित किया है। नारी जीवन के अंधेरे पक्षों के उद्घाटन के लिए प्रेमचंद केवल स्त्री/पुरूष व्यक्तिपरक संबंधों तक सीमित नहीं रहते अपितु उसे तत्कालीन राष्ट्रीय जागरण और स्वाधीनता संघर्ष से जोड़कर नया आयाम देते हैं। उनके लिए स्त्री/पुरूष संबंध अमानी भावनाओं को अभिव्यक्ति का साधन मात्र नही हैं वे उसे प्रेम कथाओं के वाचवीय भावबोध का आधार नहीं बनाते हैं। वह उसे ठोस धरातल देते हैं।
मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यासों को यदि निर्विवाद रूप से निष्पक्ष देखा जाय तो पायेंगे कि सामाजिक परिधि को सन्तुलित रूप में व्यवस्थित करने में इनका अद्वितीय स्थान है। अर्थात् उन्होंने जहाँ समाज के बुर्जुआ वर्ग के अपने उपन्यास में उचित स्थान दिया है वहीं नीचे तपके के उस अन्तिम व्यक्ति को समाज की बुनियाद माना है। जो उस समय तक उपेक्षित रहा। उनका तर्क है कि यदि समाज इस अन्तिम तपके को सन्तुलित रूप से स्वीकार करके आगे बढ़े तो समाज में बहुमुखी विकास की अन्तिम सम्भावनायें समाहित हो सकती हैं। क्योंकि यह तपका निर्मल मन से अपनी भूमिका का निर्वाह करता है।
सन्दर्भ सूची
1.गोदान: प्रेमचंद पृ0 1
2.गोदान: प्रेमचंद पृ0 5
3.डाॅ0 काशीनाथ सिंह: गोदान पृ0 7
4. गोदान: प्रेमचंद पृ0 29
5. गोदान: प्रेमचंद कमना प्रकाशन पृ0 7
6. डाॅ0 नागेन्द्र: हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ0 560
7. सुमित्रानंदन पंत: वे आँखे, पृ0 11
लेखिका विन्ध्यवासिनी मिश्रा महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी में शोध छात्रा हैं।