उद्गार काव्य : देश पर गुमान : रुद्राणी घोष
देश पर गुमान
युवा कवयित्री : रुद्राणी घोष

मुझसे पूछा एक अंगरेज ने,
तु़झे क्यों हैं इतना गुमान अपने देश पर?
खाने को भरपेट खाना नहीं,
आधी आबादी सोती है सड़क पर?
अंधविश्वास के सर्पो से है लिपटा,
निरक्षरता की काली छाया हैं,
देख तेरा वर्ण भी कितना फीका हैं,
ऐसे गरीब देश पर भला क्यों प्यार आया है?
यजमान, आप पधार कर देखिए!
मेरे देश की अदूभुत माया है,
मैं बोल उठा स्नेहिल स्वर में-
भारत का मर्म सबको कहा समझ में आया है!
जिस मिट्टी से सोना लूटकर बने तुम अमीर,
जिसके वीरों के रक्त ने तुम्हें शौर्य सिखाया है,
जिसकी ममता की अंाचल ने तुम्हारी क्षुधा को मिटाया है,
जिसने तुम्हें शिष्टाचार की गरिमा को समझाया है,
सभ्यता का उद्गम स्त्रोत है जो,
जहां चक्रधारी ने मुरली बजाया है,
नारी में सीता, पुरूषों में राम का साया है,
इसने तो दुश्मनों को भी गले लगाया है,
यहां तो खग.खग में स्वच्छंदता की गूंज हैं,
मन में बहती गंगा की अविरल धारा है,
जहां की माटी का हर कण पूजनीय है,
वेदों और पुराणों में मुनियों ने ज्ञान रचाया है,
जो सब धर्मों का स्वर्णिम संगम है,
पथप्रदर्शक बन जग में दिया जलाया है,
प्रेम भाव से पत्थर को मोम बनाया है,
जाति.वर्ण का भेद नहीं, मानवता का पाठ पढाया है,
निज प्राण जहां हो मूल्यहीन,
परोपकार में ईश को दर्शाया है।
रूधिर पुलकित हो उठे जिसके दिव्य नाम से,
ऐसे अतुल्य भारत को कोटि कोटि प्रणाम है।
ऐसे अतुल्य भारत को कोटि कोटि प्रणाम है।